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________________ -400642030000000 सुविहितगुर्वादिगोचराऽतुबमत्सरपसरत्रशोन्मिपोषनरनीषणाः शुक्रधर्ममार्गप्रवृतान् स्वावर्जनप्रमत्तान् वा ज्ञापयंति ॥ ६॥ वाशिजनांस्ताहक्कुप्रसत्वजयोप्रेकविधायिवानिमिमामंघरैः स्वरूपेऽप्यपराधपदे च स्वमनोऽनशुल्माचरणादिरूपे शापादिनिः कार्मणादिनिर्वा सद्योऽप्यपहरति तजीविताद्यपि निविंशहृदया:॥ ॥ एवंविधा बौकिका बहवोऽवि महर्षयः प्रसिहाः, परित्राजकश्चात्र निदर्यते, नयाहि ---॥ ॥ क्वचित्सन्निवेश रोहीतकनामा परिवाजकस्तप्यते स्म तपः, सोऽन्यदा क्वचिडुपलब्धतेजोवेश्यानच्युपाय: सम्यगनुष्ठिततहिधिर्वधवांस्तेजोवेश्यां ॥ ५ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर. नमन बळी नुनम प्राचारवाळा गुरु आदिकपर घन मतार धारवाची उबळना एचा रोएना महथी जयंकर ययंता होय जे: तया इशद धर्म मार्गमा अवतनाराने अन्यथा पोताने शिखामण आपनागाने नया जोळा कॉन नेओ मरावे ने ॥६॥ नमन कर हृदयवाळा या थका तेवो रीनना हाद प्राणीने जयनी नगको कर नारा वचनोरूपी मिमिमना आमंगवा करीन पाताना मनन अनुकून न प नचा आचरणा आदिकम्प म्वएप अपराध होते उन पण शाप आदिकोयी अथवा कामाप आदिकात्रो कर्गने तुरन ने श्रानां जांबित आदिकाने पण हरी ॥ ॥ एवी गतना घणा बौकिक पद्दपि श्री प्रसिद्ध छ; अही नवा एक परिव्राजकनुं इशांत देवामें 3 ते नीचे मुजय ॥ ॥ कोइक सभिवशमा गहीतक नामे परित्राजक तप तपनो हतो, नेने एक वायने क्यांक नजोलेश्यानी अधिनो नपाय मळी जवायी नेनी विधि सारीरीने पाराधिने नाग नेनोवेश्या मेळवी ।।
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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