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________________ - अथ कश्चिमोऽतर्बहिश्च सारः. पृथ्वीपत्यान्तरणक्त, यथा जैनः सर्वविरतिधर्मः, स दि यथोकांतःशुद्धिबनिःशुद्धिमत्त्वेन छियापि सार एव ॥ ३०३ ॥ एतदृत्तावना सुवाधैवेति न प्रतन्यते, अस्माच धर्माजधन्यतः सौधर्म, उत्कर्षतः सर्वार्थसिधे सिखा च गतिर्जीवानामिति ॥ २४ ॥ देशविरतिधर्मोऽप्यत्रैवाऽवतारणीयः, अंतःशुछिबहिःशुछिनावना देशतोऽत्रापि वाच्या; अतो धर्माऽत्कर्षतो हादशे कल्पे, जघन्यतः सौधम च गति:. दृष्टांता थाई स्टार दाना, इति धर्मविषयां शुछिमधिकृत्योक्ता चतुर्नगी ॥२०॥ 666666666666000000000०००००००००००० श्री उपरेशरत्नाकर -- ___वळी कोक धर्म तो अंदरर्थ। अने पहारथी एम बने प्रकारे मारवाळी होय जम सर्व विरतिरूप जैन धर्म ; ते यथोक्तीन अंदगी अने वहारथी पा सृद्धिवाळी होवार्थी बन्ने गीत सारवालोज च ॥ २०३ ।। इननी जावना मुखे समजाय तेवीज , माटे तेनो विस्तार करता नर्थ।; आ धर्मी जघन्यपणे साधर्म देवशोकमा, तया | नकली सर्वार्थसिधिमां नया माझमां जीवोनी मति याय में ॥ २० ॥ देशविर निरूप धर्मने पास आ जांगामांन | की लतारपा तथा तमां पाण देशची अंदरनी शुमिनी तथा बहारकी शुचिनी भावना जाण। अत्री; नमन आ देश । विनिरूप मेची अन्टी धारमादेवमोकमा तया जधन्यथी माधर्म देवलोकमा गनि जाणवी; तथा दृष्टांतो योग्यता का पृषक पोतानी मेलेज जाणी लंबा. पकी रीने धर्म संबघि झुकिने प्राश्रीन चोभी कह। ॥ २०५॥
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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