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________________ ॥ एप अपिच, आगमन च युक्त्या च । योऽर्थः समलिगम्यते ॥ परीय हमवद ग्राह्यः । पक्षपातग्रहेण किं ।। ४२ ॥ न च,-पुराणं मानवो धर्मः । मांगो वेदश्चिकित्सिनं ॥ आझासिधानि चत्वारि न तव्यानि हेतुन्निः ॥ इत्यादिकग्रहविज्ञमितं मनम्यवधायं ॥ HH ॥ यऽनं-बम्त्वेव नन्नदि जवेन क्रियतेऽन्यथा यत् कच्छादय दिनमाण करसंपुटेन ॥ सारेतगतविचारवतः प्रतीयस्तनादमत्र बन जनचक्रवर्ती ॥ ॥ इत्यादि, ततो नृपः सर्वदर्शनिनां हृद्गतवैराग्यपरीक्षार्थ 'सकुंझं वा वयणं न वनि' इनि समस्यापदमार्पिपत् ।। १६ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर प वळी पण, प्रागमय। नया युक्तियी जे अद्य माने जणाय नन। परं का करोन मूवनीपत्रे प्रहाण । करवा पकपात ग्रहण कग्वार्थी शने ॥ ४ ॥ कळी पुगण, मनुम्मनि ( मानवशास्त्र) अंगामहित कंद तया टक ए चारे आझायीज मि . पाटे नोन हनुयायी हणवा नही' इत्यादिक कदान हयुक्त बाबत मनमा | १ धवी न जाय ।। १४ ॥ कयु के के-ते बस्नुज न हो शक के ने अन्यया कराया कमके मूर्यने हम्नस'टर्यो । कोण आचार्दशक में! माटे मार नया अमार वानुना नफावननो विचारकरनार पन्या करना पई हुंज अरे रे | दुर्जनांना मदार ॥ ४५ ॥ न्यादि, पत्र। गजाए सर्व दर्शनीवालाना हृदयमा दमा वैगम्पनी परीकामा?'' 'मुग्य मनवा हर्नु के नहीं दी तर्ने समस्यानु पद आषु ॥४६॥ .......... "
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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