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________________ वरदत्तश्रेष्टिदासीपुत्रादयः; केचित्तु तदनवेऽपि सम्यग् धर्ममपि बनते, कुलककुमार वत, नगपरिणीतनागिनाध्यानपरत्रातृजवदेवोपरोधवशबहुवर्षव्यझिंगधारकत्लवदत्तबच्चेति द्वितीयो जंगः ॥ २११ ॥ अपरे पुनर्महेन्यानरणवदंतः साराः, हृदये धर्मपरिणामवत्वात् वझलप्रमहर्षिसेवकमृगवत् ; बहिस्त्वसाराः, धर्मक्रियारहितत्वेन, तथा चागमः-सुई च सर्छ सधं च। वीरिअं पुण उल्लहं । बहवे रोअमाणावि । नोअणं पमिवज्जए ॥ १३ ॥ एते चासन्नसिछिकाः स्युः, प्रायः क्रियानुष्टानं बिना नवतरणाऽसिद्धेः ॥ यत-जागांतो विदु तरिन । काश्यजागं न जुजई जो- ॥ सो बुद्ध सोएणं । पर्व नाणी चरणहीणो ॥ १३ ॥ वरदत्त शेषना दासीपुत्र आदिकनां दृष्टांता जागवां. वळी कटनाको नो ने जवां पण सम्यग धर्मने पण पामे a (कोनी पे तोके) कश्यक कुमारनी पवे तथा नवी पराणली नागीक्षा नामन। बीना ध्यानमां तत्पर रहना तथा पोताना ना नववना अाग्रहना वशी घणा वो मुधि द्रव्य सिंगने धरनारा अवदत्तनी पत्रे पी रीत बीजा नांगो नाणचा ॥ २११ ॥ कळी वीजा केटवाक जीवो शाहुकारना आजूपाणनी पेठे अंदरयी मारवाळा होय , केमके तेओना हृदयमा वक्षनट महर्पिना सेवक मृगनी पेंड धमनो परिणाम होय . तया धर्म क्रियायो रहित होवायी। वहारथी सारक्निाना होय जे: आगममा पण कयु के-धर्म संबंधि तथा श्रद्धा तो मळवी सहेली .. तमाटे वीर्य फारवयं दुर्घन के केमकं घाणाओने धर्म संबंधि रूचि नो थाय ने, परंतु ने पवित्रता नयी, पटो त धर्म मुजब क्रिया करी शकता नयी ॥१२॥ पनी रीतना उपर वर्णवेत्रा जीवो नजदीक मोझगामी जे. केमके प्रायें करीन क्रियाना अनुष्ठान विना संसार तरी शकानो नथी । कई के-तरवाने जागतो एको पा M मनुष्य जो कायिकयोगने न जोम, अर्थात जो पोताना हाथ पग हलावबामप क्रिया न करे, तो ते बुझे जे, एवी रीनेन चारित्र चिनानो ज्ञानी पण जाए वो ॥१७॥ श्री' उपदेशरत्नाकर ३४
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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