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________________ ॥१ ॥ 000000000000000000000000000000000000000000000000046 इति तृतीयो नंगः ॥ अन्ये पुनर्नृपालरणव बहिरंतश्च साराः, यथा देशविरता; श्रीकुमारपालादयः, सर्वविरता: श्रीवीरप्राच्यलवनंदनादयश्च । एते च तत्रैव नवे तृतीयादिलवेषु वा सिद्धिगामिन शति चतुर्थो लंगः ॥ १४ ॥ एवं गुरुश्रावकधर्मजीवगते पृथग् जंगचतुष्टयेऽस्मिन् ॥ यतध्वमंत्यहितयेषु चेतो । निवेश्य जावारिजयश्रिये ज्ञाः ॥१५॥ ॥ इति तपागच्छे श्रीमुनिसुंदरसूरिविरचिते श्रीनपदेशरत्नाकरे श्रीगुरुपरीक्षाधिकारे पंचदशस्तरंगः समाप्तः ॥ भी उपदेशरत्नाकर पवी रीते त्रीजी जामा नाणवी | बळी केटयाक जीवो नो रामाना आपणनी ने वहारय। अने अंदरथी । पास सारवाळा होय जे, जेम देशविरतिधारी श्रीकुमारपाळ गुजा आदिको तथा सर्व विरति पवा श्री वीरप्रजना पूर्व नववाळा नंदन ऋषि आदिको : बळी तो तेज नवे अथवा त्रीजा आदिक नवोमां मोगामी हाय ने नी रीने चाथो जांगो माणवो ॥१४॥ पनी गने गुरु, श्रावक, धर्म, तया जोवन आश्रीने कईना एवा श्रा प्रत्यकचुत चार नांगाग्रामांची रक्षा मां मन गम्वनि, हे पमितो: तमो नाबशान जीनवानी समी मा प्रयत्न कंग ।। २१५॥ ॥एका गने श्रीतपगच्छमां श्रीमनिमुरमूरिजीग रचना श्रीनपदशरत्नाकर नामना ग्रंथमा श्रीगुरुपकाना। अधिकारमा पनरमो तरंग समाप्त भयो । श्रीमस्तु ।
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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