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अपि च गुणगुरवा गुरवस्ततस्ते यदि कथमपि पुष्टशेकशिक्षापनेन कोपमुपागमस्त. थापि तेषां लगवदाज्ञावर्त्तित्वादमारलाजा हिमाफ कृतातिमात्रेणापि विशुछिपजायते ॥ १३१ ॥ शिष्यस्तु नगवदाझा विनोपतो गुर्वाशातनायाश्चोपचिनाऽशुनगुसकर्मा दीर्घतरनाजी ॥ १३ ॥ किंवं म वर्नमानो मतिमानपि श्रुतगलबहिर्नवनि. अन्यत्राऽपि तस्य पुर्वतश्रुतत्वात् ॥ १३३ ॥ को दि नाम सचेतनो दीर्घनरजीविताऽनिनापी सर्पमुखे स्वहस्तेन पयोबिंदून प्रतिपतीति ॥ १३६ ॥ स एकांतेनाऽयोग्यः. प्रतिपकलावनायामपीदमेव कथानक पग्निावनीयं ॥ १३५
श्री उपदेशरत्नाकर
वळी पण गुम्ओ गुणोयी माहाटा छ, अन ना कदात्र को कार्थी दुष्ट शिष्यन (शखामण आप- | । वाथी क्रोध पामे, नोपण नो प्रजुनी आज्ञामा वर्तना होवायी तेश्रोने म्बष्प पाप बाये . अने ने फक्न मि
ध्या दुकून आपवाथीज गृह यह नाय के || ११ || अन शिप्य तो प्रशुनी आझाने ऑपवायी तथा गुरुनी
आमाननाय। अशुल कमान उपार्जन करवायी चारेकमी थयों थको दीर्थ मंमारने नजनार्ग पाय रे ॥१३॥ ! बळी पूर्वी गने बननाग शिष्य बुद्धिवान होय नापाग झानग्न्नयी वाद्य याय नेम वीजा गच्छांतर आदि६ कमां पण नेने ज्ञान मलव दुर्बन याय ३ ॥ १३३ ।। कळी घणा काळ मुधी जीविनना अनिझापी चनुर पवा || 8 कया माणम एवा होय के जे पोनाने हाये मर्पना मुन्वमा दूधना बिंदुओ मे ? ॥ १४ ॥ माट एवा प्रकारनो शिष्य | | एकाने अयोग्य छ: बळी नुपर वर्गवेव आनीरीन दृष्टांन प्रतिपक जावनामां पर नीच मुजब नात्री अव।।१३।।