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________________ 1090 अपि च गुणगुरवा गुरवस्ततस्ते यदि कथमपि पुष्टशेकशिक्षापनेन कोपमुपागमस्त. थापि तेषां लगवदाज्ञावर्त्तित्वादमारलाजा हिमाफ कृतातिमात्रेणापि विशुछिपजायते ॥ १३१ ॥ शिष्यस्तु नगवदाझा विनोपतो गुर्वाशातनायाश्चोपचिनाऽशुनगुसकर्मा दीर्घतरनाजी ॥ १३ ॥ किंवं म वर्नमानो मतिमानपि श्रुतगलबहिर्नवनि. अन्यत्राऽपि तस्य पुर्वतश्रुतत्वात् ॥ १३३ ॥ को दि नाम सचेतनो दीर्घनरजीविताऽनिनापी सर्पमुखे स्वहस्तेन पयोबिंदून प्रतिपतीति ॥ १३६ ॥ स एकांतेनाऽयोग्यः. प्रतिपकलावनायामपीदमेव कथानक पग्निावनीयं ॥ १३५ श्री उपदेशरत्नाकर वळी पण गुम्ओ गुणोयी माहाटा छ, अन ना कदात्र को कार्थी दुष्ट शिष्यन (शखामण आप- | । वाथी क्रोध पामे, नोपण नो प्रजुनी आज्ञामा वर्तना होवायी तेश्रोने म्बष्प पाप बाये . अने ने फक्न मि ध्या दुकून आपवाथीज गृह यह नाय के || ११ || अन शिप्य तो प्रशुनी आझाने ऑपवायी तथा गुरुनी आमाननाय। अशुल कमान उपार्जन करवायी चारेकमी थयों थको दीर्थ मंमारने नजनार्ग पाय रे ॥१३॥ ! बळी पूर्वी गने बननाग शिष्य बुद्धिवान होय नापाग झानग्न्नयी वाद्य याय नेम वीजा गच्छांतर आदि६ कमां पण नेने ज्ञान मलव दुर्बन याय ३ ॥ १३३ ।। कळी घणा काळ मुधी जीविनना अनिझापी चनुर पवा || 8 कया माणम एवा होय के जे पोनाने हाये मर्पना मुन्वमा दूधना बिंदुओ मे ? ॥ १४ ॥ माट एवा प्रकारनो शिष्य | | एकाने अयोग्य छ: बळी नुपर वर्गवेव आनीरीन दृष्टांन प्रतिपक जावनामां पर नीच मुजब नात्री अव।।१३।।
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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