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________________ ८. तत एवं तो महतो पुग्वस्य जाजनमजायेतां, एष दृष्टांतोऽयमापनयः ॥१६॥ यो विनेयोऽन्यथा प्ररूपयन्नधीयानो वा खरपषवाक्यैराचार्येण शिक्षितोऽधिक्तपपुरःसरं प्रतिवदति, यया त्वयैवेत्यमई शिक्तिः , किमिदानी निहनुषे, इत्यादि ॥१२७ ॥ म न केवलमात्मानं संसारे पानयति, किंवाचार्यमपि खरपरुषप्रत्युच्चारणादिना तीवनीबतरकोपानझज्वासनात् ॥ १० ॥ नवनि कुविनेया मृदोगपि गुरोः वरपरुषप्रत्युच्चारणादिना प्रकोपकाः, नक्तं चोत्तराध्ययनेषु ॥ १२ए ॥ आणासवाथूलवया कुसीया । मिनाप च पकरंति मोसा इति ॥ १३० ॥ श्री उपदेशरत्नाकर अन एवीन नो वन महानग्यने पात्र थया; ए उपर मजवन तो दृष्टांत में, परंतु नना अथना नपनय तो नीचे मुजब रे ॥ १५ ॥ शिष्य के ने, नयटी बीते प्रमपणा करना होय, अयश अभ्यास करतो होय, नेने || आकगं बननायी आचार्य शिवामाण आप, अने ने पवन मामो थहने प्रनिवनना कह के, नेज मने एत्री ने १ शीग्वाब्यु . हंव शामाटे गोपवे रे ? इत्यादि ॥१३५ ।। पत्री मीनना ने शिष्य केवळ पोतानेज समारमा पामतो नयी, पानु प्राकगं वचनो माया बोलक्या आदिकया नया वधार वधार क्रोधापी अग्निने प्रदीप्त कराववायी प्राचार्य-18 B] महाराजने पण समाग्मो पामे वे ॥ १.२० । वळी पत्री ने कुशियो कोमलतावाला गुरुने एग आकगं वचनो ] । बाजवा आदिकथी क्रोय नन्पन्न करनाग प्राय के नुनागध्ययनमा कयु के ॥ * ॥ आश्रयविनाना, म्यून वन-३ का नया कुशीत्रीया पवा शिया कोमळ गुरुने पाग क्राशित कर . ॥ ३० ॥
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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