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auteursorderten ॐ अथ द्वितीयस्तरंगः
अथास्य परमरहस्यनूतस्य धर्मस्य ग्रहणविधिमाह ॥ १॥
जुग्गेहिंजुग्गपासे । सो पुण जुग्गो गहिज्जए विहिणा ॥ संपुन्न सुह फलो जं । एवं सचिन अन्नहा श्यरं ॥३॥
हत्रे श्रा उत्कृष्ट सारवाला धर्मने ग्रहण करवानी विधि कहे छे. ॥१॥
वळी ते धर्म योग्य मनुष्यो योग्पनी पासे योग्य रीते विधि पूर्वक ग्रहण करे 33; केमकं एत्री रीत योग्यता पूर्वको ग्रहण करेझो धर्म संपूर्ण शुभ फलने देनारी में; अने जो तेथी उलटो एटले अयोग्यनापूर्वक ग्रहण करवामां आवे, तो अशुभ फल देनारो थाय ॥ २॥