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________________ झारगाथाव्याख्या-जुग्गेहित्ति, स पुनर्धों योग्येयत. योग्यानामेव दीयत इत्यर्थः।३।। बहिर्मनप्रकासनं जलमपिहि योग्य एव पात्रे निधीयत. नत्वयोग्ये. तत्राऽनर्थफलत्वात् ॥ ४॥ किं पुनर्जन्मसन्दितांतसत्तरजातापव्यापत्तिविच्छेदहतुर्धर्मः ॥ ५॥ त मुक्त-आम घ निहतं । जहा जझं तं घमं विणासह ॥ इअ सिठंतरहस्सं ।। अप्पाहारं विणासह ॥६॥ तथा जुग्गपासत्ति. योग्यनामेव पावें गृह्यते, नवयोग्यानां जन्नवत् ॥ ७ ॥ द्वार गाथानी व्याग्च्या-हड़ी ने धर्म योग्य पनुष्योीज ग्रहण कगय उ. अर्थान योग्योपन्यन दबामा | आव ॥ कमक ज्यारे बहारना मन्न धाना नळ पाग योग्यज पात्रमा ग्वाय , परंतु अयोग्यमां ग्वानुं नर्थ, कमक अयोग्यमा राखवार्य निरुपयोगी फल.बाई थाय ॥४॥ 18 त्यार हजाग जवानां मंचिन करना अंतरंग मंत्र. मृणा. ताप अन विना नाश करवाना हतरूप धर्मनी शं |वान कात्री ? ॥ ५॥ कढ़यु में क; म काचा घमामा नाग्वद्धं पाणी ने समाना नाश करे तप प्रा सिद्धांतना ग्हम्य पाण अ-18 । यांग्यना नाश कर वे ॥६॥ वळी ते धर्म योम्यानी पामन ग्रहण कगय . पम्न जननी पत्रं अयोग्पनी पामर्थी ग्रहण कगता नयी ।।७।। श्री उपदेशरत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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