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________________ ॥ १३ ॥ यह चारित्रेण विहीनः । श्रुतवानपि नोपजीव्यते सद्भिः । शीतल जलपरिपूर्णः । कुलजैश्चांकालकूप इव ॥ ८ ॥ सो पुल उगोति स पुनर्धमों योग्य एव गृह्यते नत्वयोग्यो हिंसादिकपः प रिखोदकवत् ॥ ॥ तया गहिजए विहिणत्ति, गृह्यते विधिनैव, नत्वविधिना न खन्नु जलमपि प्रतिकूले कक्षसे संक्रामतीति ॥ १० ॥ विधिश्वात्र विनयवहुमानादिः उक्तं च-- सीहास निसन्नं । सोवागं सेपिओ नस्वारिंदो ॥ विजं मग्ग पयो । अ साहु जणस्स सुवि ॥ ११ ॥ क के चारित्र विनानां ज्ञानवान पण, सज्जनोथी आदर पामतो नयी कानी पेत्र तोके शीतल जलयी जेरेला एवा पण चाना कुत्रानो कुलीनो जेम आदर करतां नयी तम ॥ ८ ॥ योग्य ग्रहण करवी. परंतु वाळना जवनी ऐसे हिंसाच्यादिक उपवाचे अयोध्य धर्म ग्रहण करवो नहीं ॥ ७ ॥ बीते धर्म विधिपूर्वक ग्रहण कराय . परंतु अविधि ग्रहण करतो नयी. केमके पाणी पाण कानुं नयी ॥ १० ॥ विधि से विनय तथा बहुमान आदिक जायचं कघुं छे के सिहासनपरा चांगालनी पायी थे कि राजाओ विद्यामागे मी ते साधुजने वन विनय करो ।। ११ ।। श्री उपेंद्र रत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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