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________________ 4. 441 ॥१० तउर्फ इत्य य पासत्याहिं । संगयं चरणनासयं पायं ॥ समत्तहरं अहंदए -हिंतलख्खाणं चेयं ॥ २१ ॥ जस्सुत्तमायरंतो, लस्सुत्तंचेव पनवेमाणो ॥ एसो उ अहाउँदो । बात्तिएगा ॥ २ ॥ सबंदमविगम्पिय । किंचि सुहसायकिगइपभिवको ।। तिहि गारवेहि मजइ । तं जाणाही अहाउंदं ॥२३ ॥ एवमाइ बहुविभई । उस्सुस प्रायरंज सबमेव ॥ अन्नेसिं पन्नविति य । मित्रवाए जे अहाचंद ॥ २४ ॥ इत्यादि, प्रतिदिनदशदशप्रतिबोधितृनंदियणसदृशास्तु श्रायविंगत्यान्न गुमपंक्तिमहतीति द्वितीयो नंगः ॥ २५॥ . १००668 0060 श्री अपंदेशरत्नाकर का के–पामन्या आदिकनी संगति अही प्रायें करने चारित्रना नाश करता ने, नया बच्चा चाग्निी संगनि सभ्यन्यने हग्ना ने नन बकाण नीच मुनय ॥ २ ॥ मन्त्रन आचन्ता तया दुम्मूत्रन । प्ररूपनो एवं यनि बंजाचारी कहवायः । यथाउंद. बाद ए शब्दों एकार्थवाची छ ।। २२।। स्वच्छाचारी मदिना विकल्पायी विचित्र मुग्वशीधीश्री यन (घृत, गान आदिक ) विगयानी घान्नच यया थको निगर्व आदिकगा न मन पाय चे. नेने बगवारी जाणवो ॥ २ ॥ इत्यादिक घणा विकल्पापूर्वक ने पोतन चन्नमर्नु अाण करे | ज, तमज वीनाओने पर उन्मृत्र प्ररूपे ने, नया शिरबामण देना पण तो बनायानी चाय ॥ २५ ।। इत्यादि। शा हमेशा दश दशने प्रनिबोधनाग नंदिपोण सम्खा तो श्रावकना सिंगवाला होवायी गुरुपंक्तिने लायक अरु शकता नयी; एवी रीते वीजा नांगा जाणवो ॥२५॥ 700000らなるやるるるるるるるるるるるる
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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