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________________ ॥ ७॥ एवंविध आत्मनैव नीरमादौ कृत्वा गोजक्ताद्यपि क्षिप्यते, ययाऽग्निर्विध्यायति ॥३०॥ अन्यदा वेणी धूपयतस्तस्य शिरसि गोजक्तं वितमित्यादि ॥ ३१ ॥ ययैष कुमपुत्रो यथाश्रुतमेवाऽवधारयत् वचनं, न तु तदन्तिप्रायविषयविशेषाधवबुछवान् ॥ ३२ ॥ एवं श्रुतमात्रग्राहिणो वचनविषयतात्पर्याद्यनलिझा जीवा जलाकःसदृशा इनि, ययाच सा जमौकाः शूताप्रयोगादिना पोतं रुधिरं निश्चीत्यमाना परिणामे मुखिनी नवति ॥ ३३ ॥ तथा नेऽपि इहापि :विनः स्युः पदे पदे दृष्टांनीकृतकुमपुत्रकवदेव परत्रापि चेति ॥ ३४ ॥ श्री मपदेशारत्नाकर. ज्यारे प्राव थाय त्यार पानेन पाणीयो मांझीने गायना माण मुधां पण नुपर नाग्व, के जेयी आग || बुझी जाय ॥10॥ एक बाते शंठ पोन पोतानो चोटो धूमता हता, ने च बरे नेपना मतकार नगे गायन । वाण फॅक्युः इन्पादि ।। ३१ ॥ एवी रीते जैन ने कुलपुत्रे में सांघु हाँ, नेज वचन पारी सम्पु हतुं, परंतु तेना अजिमायना विषय मंबंधि जेदने ने जाण) शक्यो नहीं ।। ३३॥ एष गौते फक्त मानपुंज ग्रहण || करनारा, तण वचनोना विश्यना जावार्य आदिकने नहीं जागना; जीवो जो सरखा जारावा कळी जेम ने जळो शुळ वाचवा आदिकना प्रयोगवा करीन पीधे रुघर नीचंबातो यको परिणाम दुःख याय ने ॥ ३॥ तम ते । जीवो पह नपर मुजब शाम कडेला कुतानो परे ा क अ पात्रोक पा पा पाने दुःस्वी पाय। ॥३४॥
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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