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________________ संध्येति यथा बंध्याया गोर्युग्धार्षिना बहुविधसरसधृतादिकचारिधान्यकार्पसिकादि बपि दीयमानं निष्फलं पुग्धाधकारित्वात् ॥ ३५ ॥ तथा केपांचिज्जीवानां वहुविधा अपि सुगुरूपदेशा निष्फझीजवंति ब्रह्मदत्तचक्र्यादीनामिव. तमुक्तं॥ ३६ ॥ नवएससहस्सेहि वि । बोहिजतो न बुजहाई कोई ॥ जह बंजदत्तराया । नदायनित्र मारो चेव ॥३७॥ इति । तथा अध्याया धेनोः पुनर्यथा यत् किंचित् तृणाद्यपि दत्तं मुग्धादितया परिणमति, एवं केषांचित् स्वल्पमपि गुरूपदिष्टं महाफवाय कल्पते ॥ ३८ ॥ नपशमविवेकसंवरेति त्रिपद्यपि चिन्नातीपुत्रस्येव, बहुपिमिश्रा एगपिमिओ दटु मिन्बई. इति वचनर्मिनागस्येव, यावजीवमनाकुटिरस्माकमिति वचनं धर्मश्चेरिव चेति ॥ ३५ ॥ वंध्या एट्ले जम वांजणी गायने वृधनो अर्थी मनुष्य घणा प्रकारना सरस घी आदिक चारों धान्य । तया कपास प्रादिक घणं आप, तीपण दूध नहीं करनार्थी ते जम निष्फळ जाय ॥ ३५ ॥ तेस केटनाक जीवाने या प्रकारना मुगुम्ना उपदेशो पर ब्रह्मदत्त चक्री आदिकोनी पेठे निष्फळ थाय ते माटे का के ॥ ३६॥ ब्रम्पदन गजा, नया उदायीन मारनार मनुष्यनी, जैम हजारोगमे उपदेशांची बांध देये, तोपण केटल्लाकोने उपदंश आगता नथी॥३७॥ इति चळी अवंध्य गायने जेम जे कइ घाम आदिक दवामां आवे . अने ते धरूपे परिणम . तेस केटयाक मनुष्यान अरूप एनो पण गुरुना पंदश महान फळदायक थाय ||३ || जेम 'उपशम, विवेक ने संवर' र त्रण पदों चिन्नाती पुत्रने. तया है बहु मित्राला एक पिमवाली तन जोवान ' पूर्व वचन जैम नाग प्रत्ये, नथा छेक जीवीन पर्यंत अनारंजिषा अमा एवं वचन धर्मचि प्रत्ये ॥३०॥ भी उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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