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________________ 000000000cddr एतदक्षाने तुतीयजंगसंगिनोऽवि; आप जय गुरवस्तु त्याज्या एवेति इत्युक्ता श्रीगुरु गता श्रुतमाश्रित्य चतुर्जगी ॥ १२७ ॥ अथ क्रियामाश्रित्य श्राद्धानां चतुरंग दर्शन श्रुतमाश्रित्य तु तेषां चतुर्नगी न घटते, तेषां विशेपश्रुताऽनधिकारित्वात् ॥ १२८ ॥ तदुक्तं – अप्पवयणमायाणु-गयं सुत्तं जन्नों पढ || कोसेणं जीव तु । जनजोगो ॥ १२० ॥ इति, तत्र केचिच्छ्रादाः क्रियामाश्रित्य श्राकाभावदिवाऽसाराः, तथाहि-- क्रिया खल्वत्र श्राद्ध विध्यनुष्टानं व्यवहारानिपूजागुरुप्रतिपत्तिसुपात्रदानहिंसादिविरतिसामायिकावश्यकादिरूपा ।। १३० ।। ए चीया जांगावाला गुरुको दान न के तो श्रीजा जोगावाळाने पण स्वं वाग्वाः परंतु हे जांगावास गुरुयोंने तो तजबाज जो ए एवी ते श्रुने श्री गुरु संबंध चोग कही ॥ १२ ॥ हत्रे क्रियाने व्यश्रीने धावकोनी नोनंगी देखा . श्रुतने श्रीने तो तेन चाग घट शकती नयी : केमके ने विशेष अधिकार नर्थ ॥ १२८ ॥ क के सात कदम जो एवो जयचन माताने अनुसरन: रुं श्रुत जाणे, अनं उत्कष्टथी तो बर्जी अध्ययन सुधी जो ॥ १२७ ॥ इति मां केटलाक श्रावको तो क्रियाने आश्रीने चालना आनी पत्रे अंदर अने बहारथी पण सार विनाना होय ने ने कहे - अहीं क्रिया से श्रावकांनी विधिपूर्वक क्रिया जिवी के व्यवहारशुद्धि, जिनपूजा, गुरुसेवा, सुपात्रदान, हिंसा आदिकनी विरति, सामायिक तथा आवश्यक आदिकरूप जाएनी ।। १३० ।। 0000 20000000 श्री उपदेशरत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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