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________________ दृष्टांताश्च संप्रति दुःषमानुजावतोऽनुपदं सुलभा धर्मवकास्तादृशा बहवोऽपीति, जिनदासश्रेष्टितुरगापहारकब्रह्मचारिचंमप्रद्योतनृपप्रहिताभयकुमारमं त्रिवंधनार्थ कपट विकीनूतगणिका श्राद्धसुतापाणिग्रहार्थ कपट आखीभूतबुधदासवन्त्ररकूल क्षुल्लक विक्राचकश्राद्धादयां वा दृष्टांता यथामंत्र वाच्याः ॥ १४० ॥ एतेऽपि चाऽभव्या दूरभव्या अपिच । गतिरप्येषां प्रथमगुएल स्थानिनामिव यथाई वाच्या, धर्मानुष्टान विषय श्रद्धानाद्यभासम्यक्त्वरहित्वात् ॥ १४१ ॥ श्रवं जन प्रख्याप्य कुव्यवहार परोह विश्वासघा तादिपरत्वेन श्री जिनधर्मगोचरामपब्राजनां कुर्वाणानां च तेषां केषांचित इरंतभवज्रमणाद्यपि ॥ १४२ ॥ अहीं हालां दुःखमाळवा वा धर्मगो बहु देखाय है, जिनदास तथा अजयकुमार मंत्रिने वा माटे कप। श्रावक यस कुछदास तथा कवर कृजना बांची || १४० ॥ उपर व ओनी गती प्रथम गुएाणावाळाओनी का आदिका अंजा करीने तेन समकीत रहित श्रावकप प्रसिद्ध करीरीने खोटो व्यवहार, परनो द्रोह तथा art fear aar ear तेश्रो केटाकोने तुरंत नवमां जमा तावर्थ तेत्रांत तो पगले पगले मळ शंक, केमके उनसे मोमो हरनार ब्रह्मचारी, चंगप्रयात राजाए मोकले | श्राविका थयेली कंग्या, आवकनी पुत्री परवा माठे कपटी कुकने केवनार आवक आदिकना यथायोग्य ते अही आवको अजय्य तथा रजन्य पण हो के है । नया यथायोग्य ते नावी केमके धर्मक्रियाना विषयवाळ | हांय के ॥ १४१ ॥ । ओकोमा (पोतानुं) विश्वासघात आदिकयां तत्पर पड़ने श्री जैनकिया ॥ १४२ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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