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________________ मणिग्वाणित्ति, मणिग्वानिषु यया अघयोऽश्यतेजसोऽपि जलदजनविंदवः पतिता बृहत्तरमहातेजस्कचिंतामणिप्रमुखरत्नोत्पत्तिवृहितवा नवंति ॥ ५५ ॥ तथा केपुचिज्जीवेषु स्वल्पान्यपि पांमित्योपदेशवचनानि महाझानदर्शनचारित्ररूपयोघेः समुत्पत्तये वृष्ये च महाशुनाऽनुष्टानाय च जति ॥ २६ ॥ यया श्रीवर्धमानजिनन वेदार्यमात्रकयनं गौतमादिषु, यथा च श्रीजिनेत्रिपदीमात्रार्पणं सर्वगणधरेपु, यथा वा नो अणेगपिनिया एगर्पिमित्रा दन मिच्न, इति बननर्मिनागे. तत्स्वरूपं यया ॥ ५ ॥ बसंतपुरे धनश्रेटिनो गृहं मायाँच्चिन्नममानुपं कृतं, इंधनागो नाम दारकः, सबदिनः स च कुधितो ग्वानः पानीयादि मार्गयति ॥ ५ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर मणिवाणि, एटने मणिनी खाणामा जम नाना अन अप नजवान एवं पा जलविंबुनो मने उने, मोटा अन महा नेजवालां चिंतामति प्रमुख गन्नानी नन्पनि नया दिना हेतमप याय ।। ५५ ।। | नम केटोक जीवो प्रन्य अप एवां पण पमिता नखां उपदेशनां बचना महाज्ञान, दर्शन नया चारित्रम्प || वाधिवीजनी नन्पनि नया वृद्धि माटे अन महा शुज अनुष्ठान माटे थाय वे ।। ५६ ॥ जंग श्रीमान गए गौतम आदिकोने को बदनो अर्थ मात्र, नया सर्व गण प्रन्ये जिन गर्नु मात्र त्रिपदी, आप, 18 || अथवा 'हे अनेक पिंवाला : एक पिम्वाको नने जोवाने इसे छ,' एवी रीननुं नाग प्रत्ये कहेडं वचन | 1 जागवं. ते इंद्रनागर्नु वृत्तांत नीच मृजब वे ॥ ५५ ॥ वसंतपुरमा मरकीए धनश्रेटिन पर मनुष्य रहित मून 181 || कयु; न्या इंद्रनाग नामनो ओकरी बची गयो ने नूग्यो यवायी ग्नानी पामीने पाणी अादिक मागत्रा झाग्यो ।। ५७ ॥
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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