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________________ तथा वस्त्वऽवस्तुनोः कृत्याकृ.त्ययाः वपरयो विज्ञपं जानातीति विशेषज्ञः, स धमस्याईः तन--- यत्यूणं गुणाले । अमावेई अपग्ठाचायलावणं ॥ पागण विसेसन्नू । उत्तमधष्मारिही तेण ॥ ५६ ॥ अथवा विशेषमात्मन एव गुणदोपाधिरोदयकाणं जानातीति विशेषज्ञः, यमुनप्रत्यहं प्रत्यकेन । नरश्चरितमास्मनः ॥ किं नु मे पशुन्निस्तुत्यं । किं नु सत्पुरुष रिति ॥ ५५ ॥ श्रीधर्मदासगगिनिरपि, जोनविदिणे दिणे संऋत्रके अजअजिमामि गुणा । अगुगणेसु अ नहु ग्वनियो । कहमोन करिज अप्पक्षिय | 06 || श्री उपदेशरत्नाकर ___ बळी बस्तु अवस्तुना. कुत्य अकृत्यना, तथा परमा नफ.बनन जे जाणे . ते विज्ञपड़ एटन विप 15 जाण नाग कई वाय, ने त धर्मन याम्य में. क्युं द-बाप माइस प्राय करीन अपनपानपगायी वस्नुना गुण दापाने जाण छ. अने नयी ने नम वर्मन योग्य वे ॥ १३ ॥ अथवा विज्ञापन एनं पातानाज गुण दोपहर चबाना ब्राणम्प विज्ञापन जे जाने में ने विपक्ष कवाय. रयुं के.-मनुष्ये ट्रमंशा पाना चग्नि जा के शुं मार चरित्र पशु ममान ? के उत्तम पुको समान में 09 | श्रीधर्मदास गाजी महागजे फार का। के ने मनुष्य दिन दिन प्रत्ये एवं चिकनी नमी के कामे में क्या गुणो रेट: नश में अ भी अवनी नथी. दो मुल्य मानं हित क्याथी करे? || ॥७॥
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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