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________________ ॥ ५॥ नया धाग्यनि ययानं धर्माऽधर्मादिवस्तुतत्वमिति धारकः, स धर्मग्य योग्यः, अगिमिसनयणा मण-कजसाहणा पुष्षदामअमिन्नाणा ॥ चनुरंगुस्रोण नृमि न बिति सुरा जिणाविति ॥ ॥ इति गायाधारकरोहिणेयवत, उपशमविवेकसंवगति त्रिपदीधारकचिवातीपुत्रवत् ॥ १३ ॥ सर्वत्र ध्यातसमता-सचिमुच्येत पातकात् ।। क्रूरकमर्मावि तिमिरैः । कृतदीप वाशयः ।। शनि श्लोकधारककेसरिचौरवन् ॥ 8 ॥ श्री. वर्धमान जिनसमवमरणागततडेशनाधारकाधारकचिनेतिप्रसिधानिधानकुमारध्यवच्चत संबंधश्च 'बोहीए तानागणेनि दिनकृत्यगायावृत्तयः, ततश्चाऽधारकोऽयोग्य इनि निदर्शितं ॥५॥ ___ बळी जे धर्म अधर्म आदिक वस्तुतन्वने यथोक्त न धार में, तं धारक कहवाय अन ने धर्मन योग्य छ। निसंपरहिन आबांधाला. मनमा चितवना कार्यने साधनारा, जेनी पुष्पमाला कमानी नयी, नया जे पृथ्वी यी चार आंगुर अधर रहे डे, नेन देवा जाणवा एम जिनेश्वगे कहे के ।। ५२ ॥ एवी गैतनी गायाने धरण करनार राहिण्यक चोग्नी पत्रे योग्य जाणवा; तमज 'सुपरम, विवेक, अने मंचर' एवी शैनना त्रण पढ़ाने धागण करनाग चिन्नानी पुत्रनी पडे पण योग्य जाण वा ॥ ५३ ॥ ज्यां दीपक कोल , एवं मकान जम अंधक ग्यी मुकाय रे, नेम कर कर्मवालो मनुष्य पण जो सर्व वाक्तमा समतामचनुं ध्यान धरे, नो ने पाप यी मुकाय , एवं। रीनना भोकन धाग्नाग केमर चोग्नी पेठे पण योग्य नागवा || ५५ || श्री वर्धमान प्रचना समक्सरT: म अविना नया नेमनी देशनाने धारनाग एका अाधारक अने पकचित्त गा प्रसिक नामवाना बन्ने कुमारी 1: नी परे योग्य जाहवा. ने बनने वृत्तान घोधिए नेणनापाप'वरीननी दिनक्रन्दनी गायानी वृनिया I जा एवं माटे नहीं धारण करनार अयोग्य ने, एम जगायु ॥ ५५॥ 6.000000०००००००००००००००००००००००००0000. ०००००००००००००००००००००००.06-000०.०००००००००००००००००००००० श्री उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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