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________________ इत्यादि, केषांचित्वल्पर्थिव्यंतरादिकेति ॥ १६ ॥ कश्चिधर्मः पुनर्गणिकालरणवदंतरसारो वहिस्तुसारः, यथा तापसादीनां धर्मः, यतः सम्यग्जीवादिस्वरूपाऽननिझत्वेन जीवरक्षाप्रकारमजानतां ॥ १ ॥ विशिष्य तत्परिणामाद्यप्यस्पृशतां स्वढपापराधेऽपि शापादि प्रयच्छतामनंतकायकंदमूलशेत्रासफलाद्याहारिणां पड्जीवनिकायोपमईप्रत्तानां सापसादीमा धर्मस्य मांतः शुद्धिः कापि ॥ १॥ वहिःशुछिस्तु किंचिदस्ति, मुग्धजनरंजकस्य वनवासकावारिधानकिंचित्तपःकष्टानुष्टानादेः सद्लावात : एतस्माधर्मतो गतिरुत्कर्षतो ज्योतिष्कदेवादिषु ॥ १ ॥ 200०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००40000 श्री उपदेशरत्नाकर इत्यादि, वळी तेमाना के साकाने कदाच अप अदिवाळी व्यंतर आदिकनी गति प्राप्त थाय ॥१६॥ वळी कोक धर्म तो वेश्याना आनूपानी परे अंदयी सारविनानो अन वहारथी सारखाको होय छ, जेम तापस आदिकोनो धर्म, केमके नेओ सम्पक प्रकारे जीव आदिकना स्वरूपने नहीं जाणता होवायी जीव रकाना प्रका| स्थी अज्ञानी होय ने ॥ १॥ | तेमज विशेष प्रकारे ते जीव रकाना परिणाम आदिकने पाण तो स्पर्श करना नयी, वळी स्वरूप अपराध होते उत्ते पण तेश्रो शाप आदिक आपे छ अनंतकाय, कंदमुळ, शेवान्न तथा फल lal आदिकनो आहार करे , काय जीवोनुं जपमर्दन करे छ, माटे तेवा तापस आदिकांना धमने अंदस्यी कं पण शुचि होती नयी ॥ १ । परंतु वहारयी कंक तेमां शुद्वि होय , केमके मुग्ध झाको 'जयी खुशी याय, नेवां वनवास, कोनी गलनां बसो पहेवा तथा कडक तपम्प कष्टकारी क्रिया आदिक तेमां देखाय ने; एवी रीतना धर्मथी उत्कृष्टो गति ज्योतिक देव आदिकोमा थाय ने ॥ १ ॥ - -
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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