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________________ ॥ ११७ ॥ ॥ तदनुसारेण विज्ञातं तैरेष सोऽस्मद्गुरुः, अहो विचित्रः संसारः, यत्तादृशीं ज्ञानझ श्रीमवाप्य हृदयनावतोऽश्रद्दधानो वराकोऽयमिमामवस्थां लेने ॥ ८० ॥ अनंतं च नवं लप्स्यत इति कृपया सोच्य तं सर्वेपि निष्क्रांताः ॥ ८ ॥ इति, एते चाऽनव्या दूरनव्या वा वहिर्गुर्वाकारधारिणोऽयंतः श्री अर्द्धचनत्र ढाना दिरहित्वेनाऽनंतनत्रजन्यधिपातिन इत्यंतर सारा बदिव साराः इत्युक्ता द्वितीय जंगपाति॥ ० ॥ तथा के चियवहार्य जरणवदतः सारा बहिश्वाऽसाराः, तथादि --- केषां चिदंतहृदये श्रुतमस्ति श्री जिनवचनसम्यकूश्रद्धानादिरूपं ॥ १ ॥ नः कुगुरुवः अने तने अनुमारे ते जाएयुंके, अमा गुरु अहो ! संसार विचित्र ने, केमके तेवरी । ज्ञानन्नदमी पाने पण अंतःकरणना जावय। तेपर श्रद्धा नहीं रखवार्थी ते विचारों या हासन पाम्पो के !! ॥ ८० ॥ तया वळी पशु अनंता जत्रो पामशे, एवं रीते तेपर दया झावाने तथा तेने छोमावीने ले सघळा राजकुमारी त्यांची चाया गया ॥ ७ ॥ इति, एवं रीतना ऊपर वर्णवेन्ना गुरश्रोंने अमवी अथवा दूरज़वी जाएवा तेओ बहारी जो के एगुरुनो आकार धारण करें . परंतु अंदरर्य श्री मिनां नचनोपर श्रद्धा आदिक नहीं होवाथी ओ अनंत एवा संसाररूपी समुद्रमां परे ने एवं रीते अंदर सार विनाना तथा बहारथी सारभूत एवा बीजा जांगाने अनुसरनारा गुरुं स्वरुप कथं ॥ ५० ॥ वन्ही केटाक गुरु व्यपसीना आभूषणनी के अंदरयी सारखाला बहारी सार विनाना होय ; ते कहे छे : केला गुरुना 1 श्री जिनेश्वर प्रजुना वचनामा सम्यक मकानी श्रद्धा आदिकरूप ज्ञान होय ।। ७१ ।। ◆◆❖❖❖❖0606 श्री उपदेशरत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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