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________________ - - ॥१७॥ एवं ग्रहण हेतुमाह-संपुन्नसुहफ्नो जं एवं चियत्ति, यदित्यव्ययं हेतो ॥४१॥ यस्माद्येतोरेवमेव पूर्वोक्तचतुः प्रकारशुद्धयेव गृहीतो धर्मः संपूर्णशुलफलः संपूर्ण| सुखफलो वा नवतीति ॥ ४॥ अत्रैव व्यतिरेकमाह-वहा श्हरत्ति, अन्यथा योग्यत्रयाऽमिलने अविधिना वा गृहीते इतरदिति अशुन्नफोऽफो नागराज्यादिमात्रफनो वा नवतीति मायार्यः ॥१३॥ इति हितीयस्तरंगः ॥ हो एवी रीत (पूर्वे कया मुअर ) धर्मने ग्रहण करवामां हेतु कह ३:-'संपन्न मुहफाज18| अहीं यन् ए हेतु अर्थमां अव्यय ।।५१ ॥ कारणक एवंी गीत एटझे पूर्व कहली चार प्रकारनी शुद्धिव; करनिन ग्रहण करो धर्म संपूर्ण 18| शुज फळवाळी अथवा संपूर्ण मुखफळवाली थाय .॥४२॥ हये तमान व्यनिक कहे जे--अन्यया एटने योग्य एवा चणे* नहीं मन्वायी, अथवा अधिधिपूर्वक नेने ग्रहण करवायी. ते अशुजफळवालो अर्थान् तात्विकफळ विनानो, अथवा फक्त रोग अने राज्य आदिक फळवाळो याय ने, एवी रीत गायानो अर्थ जाणयो ।। ४ ।। श्री नपदशरत्नाकर. ॥ इति बिनीयस्तरंगः॥ *धर्म धर्मग्राहक अने धर्मदाना.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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