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________________ ॥१९६॥ ००००००००० पघाऽपहरंति शुधर्मजीवितानि जनानां स्वार्थसिद्धयनुसारिखेवाप्ररूपितधर्मान्जासोपदेशदर्शनक्रियादिन्तिः, इति सर्पसदृशाः केचन गुरवः ॥ १७ ॥ उकंच-सप्पो एकं मरणं । कुगुझ अणंताणि कुणइ मरणाई ॥ तोवरि सप्पं गहिउं । मा कु. गुरुसेवाएं नई ॥ १५ ॥ इत्युक्ता सादृष्टांत नावना। अथ आमोसगत्ति, आमोपकाचोर विशेपास्त हि शास्त्रादिमिर्जापयित्वा ओकानां धनानि मुष्णति ॥ ५० ॥ एवं केचित् कुलगुरूत्वाद्यन्तिमानभृतः केवहिकार्यप्रतिबद्धाः शापकार्मणपंक्तिबहिःकरणशिरोजठरस्फोटादिन्जियो विविधाः प्रदर्य शुधधर्मधनान्यामुष्णति मुग्धजनानां, वसुगजस्येव पर्वतकः, तथाहि-॥ ३१॥ अया स्वार्यन सिद्धिन अनुसार पोनानी इच्छा मुजय प्रम् पेन्ना एवा धर्माजामम् प नपवना दवाEail स्वापणा तयश क्रिया आदिकवझे करीने लोकाना शुद्ध धर्मरूप जीविनने तेओ ही में जे. माटे एवा केटनाक है गुरुश्री सर्प सरग्बा होय जे ॥ १७॥ कहीं ने के-सर्प नो एक चम्चन पगण करे छे, परंतु कुगुरु अतां मरणो | | करे में; माटे सपने ग्रहण करयो साग. परंतु कु गुरुने संवा माग नहीं ।। १ ।। एव। रीत सर्पना इष्टांननी नावना कही. हवे अमोसग पटट्ने चार किं.पा, तेत्रो इस्त्र प्रादिकोयी मराव ने झोकानां धन हरी छ। ॥३० । एवी रीते केटनाक कुसना गुरुपा आदिकना अतिमानयी नरेत्राओ तथा केवन आ ाक मं चिज स्वार्थमां मना थइन इ.प. कापण, हातिबदार करवापा, तथ मस्तक पे फोमवा आदिकना चिकिध प्रकारना यो देवामीने जोना लोकानाद्ध धर्मरूपी धनान नेओ हर) ले ः (कोनी पेठे ? नाके) वमु राजा प्रन्ये जम पर्वत. ने कहे -॥३१॥ श्री उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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