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शुक्तिमतीपुर्या कीरकदेवोपाध्यायपुत्रः पर्वतकः पितर्युपरते पत्पदवीमारूढात्रान् नाणयति ॥ २२ ॥ तस्य सहाध्यायिनों वमुर्नाम राजा नारदश्च, तत्र वसुनृपः सत्यवादी गगनतबावज्ञविस्फाटिकपीवस्थं सिंहासनमध्यास्ते ॥ २३ ॥ सत्यवादिमहिना नृपस्य सिंहासन गगनस्थायीति जने प्रसिधिः ॥ २ ॥ अन्यदोपाध्याय पुत्रश्गत्रानध्यापयन्नजैर्यष्टव्यमित्यत्रागागैरिति व्यायानयंस्तदा तत्रागतेन नारदेन मैवं वादीमपाध्यायेनाऽजशब्देन त्रिवार्षिका त्रीयः प्रोक्ताः, इति प्रतिपिछः ॥ २५ ॥
यो उपदेशरत्नाकर.
शक्तिमती नामनी नगरीमा कीरकदेवक नामना उपाध्यायनो पुत्र पर्वत, (पातानो ) पिता मृत्यु पामते || ने नैनी पदवीपर वेसीने शिष्योन जणाक्वा बन्यो । २२ ।। वसु नामें राजा तथा नारद तेना सहाध्यायित्रो |
एटो साय नएनारा हता; नेमांथी दसगजा सयवाद। होवार्थी आकाशतवमा अधर रहेको स्फटिकनी | ६ पाटपर रहमा सिंहासनपर बेसनो हनो ॥२॥ सन्यवादीना माहात्म्पयी राजानुं सिंहासन आकाशमा स्थिर | 1 रहेना , एम सोकोमा ग्यानि था हत्ती ॥ २४ ॥ एक दहामो उपाध्यायनो पुत्र (पर्वत) शिष्योन जणावतो ||
थको 'अनामे करने होम करवा ए पाउनो 'अज' एटले 'बकराओ एका अर्थ करवा झाग्यो; त बखते है! त्यां ना नारदे तेचे प्रतिषेध कर्यो के, तुं तेनो पको अर्थ नही कर? उपा-यायनीए तो 'अन' शन्दनी ।। अर्थ अए वर्षोनी (जूनी) बाळ (चावल) को || २५॥
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