SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1809000000000000000000010032003035 बघायुष्का अबद्धायुष्काश्चेत्युजयेऽपि चैते प्रायः संख्यातनवमध्ये सिकिगामिनः स्युः, केचित्तु तृतीयलवेऽपीति ॥ १७७ ॥ अथ केचिन्नृपानरणवदंतर्बहिश्च साराः, हृदये रुचिरूपेण वहिः रलोपमसातिशयसम्यक्त्वमूलघादशवतप्रतिमादिसदनुष्टानविशेषेरधिकतरं दीप्तिभृत्त्वेन च, आनंदकामदेवादिश्राधवत् ॥ १७ ॥ एते चेहापि नृपावधिजनमध्ये महत्त्वप्रशंसाद्यवाप्य प्रेत्य झादशकल्पावधिसुखसंपदमवाप्नुयुः, जघन्यतस्तृतीयत्नवे सप्ताष्टनवेवोत्कर्षतः सिद्धिसुखजाजश्च भवेयुरित्युक्तास्तुर्यजंगाछाः।।१७ए॥ एषां च चतुर्णामपि नंगानां मिथो विशेषः प्रतिलंग नावित एवेति एवं क्रियामाश्रित्य नाविता श्राधानां चतुर्नंगी ॥ १० ॥ ___बांधता आयुवाला अने नहीं बधियां श्राएवाला एम बन्ने दोबाला रेत्री हायें व ने संख्याता जवाहे मोक्कगामी याय छ, तथा केटझाक तो बीजे वे पण मोके जाय रे ।। १७७ || बळी कटनाको राजाना आनुषपनी पं अंदस्यी अने वहारथी पण सारवाळा , हृदयमा रुचिस करने तथा बहारथी रस्मसरस्था अतिशयवाळा समकीत मूळ वारवती तथा पमिमा या दकनी उत्तम क्रिया कि करीने जान्द तथा कामदेव ऋदिक श्रावकोनी पर अधिक दीप्तिवाला होय रे । १७० ।। वली तओ अहीं पण क राजा मुधिना कामां मोटा तथा प्रईसा आदिक पामीन परलोकमा बार देवलोक मुशिनी सुख संपदा मच्चे । तेमज जघन्यथी जे चव अथवा उत्कृष्ठं सात आठ नवोमां मोकसूखन सजनाग थाय के, एत्री रीते चोथा गाना श्रावका कथा ॥ १७ ॥ ए चारे जगाओना परस्पर चंद दरेक जांग देखागबाज छ; एवं रीते क्रिपाने आश्रीन श्राक्कानी चलिंगी कही ।। १७०॥ श्री उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy