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________________ क्रियाविषयतीवरुचिविशेषात् स्वापत्यानां प्रविजिपूणां निषेधं न करोमि, अन्योऽपि यः कश्चित् प्रनजति तस्य प्रबजोत्सवं स्वयं कारयामि, तत्स्वजनानामाजन्मावधिनिर्वाहादिचिंतां च करोमीत्यादि प्रतिपत्तिमान, सर्वाः स्वसुताः श्रीनेमिपाई प्रबाजितपूर्वी स्वयमष्टादशसहस्रसाधुषु कृतिकर्मकृत् श्रीकृष्णनरेंजः, श्रीश्रेणिकनपादयश्व निदर्शनमत्रेति ॥ १४ ॥ एते च तृतीयनंगाघाः क्रियाविरहितत्वेन बहिझोंकषु क्रियापरवाफवन्महिमानं न दधतीति बहिरसाराः, अंतःसारतया तु पू मक्खायुषोऽवांतसम्यक्त्वा वा वैमानिकवर्जमायुर्न बन्नंत्येव, यदागमः ॥ १७॥ ॥सम्मदिठी जीवा । मन भित्रमा शिमालवासीसु। जहन विगयसम्मत्तो । अहवा नवछाउओ नरए ॥ १७ ॥ क्रिया संबंधि तीव्ररुचि विषयी दीका देवानी इच्छावाला पोताना संतानोन हुँ निषेध करतो नयी, तम बीजा पण जे काइ दीका सीये, तनो दीका महोत्सव हुँ पति कर बु, तेमज तेना कुटुंब नौना निर्वाह आदिकनी चिसा क जीवित पर्यंत ई करुं बुं, इत्यादिक अंगीकार करनारा, तमन पोताना सपना पुत्रोंने श्रीनेमिनाथ प्रत पासे दीका अपातीने पति श्रदार हजार सायनओन वंदना करनारा श्रीकृष्ण राजा, तथा श्रीश्रेणिकराजा आदिकना दृष्टांती अहीं जाणवां ॥ १७४।। एवीरीतना पत्रीजा नांगावाटा श्रावको क्रियाविनाना होवार्थी बहा रना लोकामा बियामा तत्पर एवा श्रावकनी फेरे महिमा धारण करता नयी, माटे बहारथी सारविनाना तेमन अंदरची सारपणायें करीन पूर्व प्रायु यांच्याविना समकीतन नहीं बमता थका अथवा वैमानिक शिवायन आयु वधिज प्रागममां पण कयु के-१७५ ।। सम्यग दृष्ट्टी जीव निश्चय करीन चिमानवासीधामा जाय , क्यारे ! सोक. जो तेनुं सम्यक्त्व न गयुं होय तो, अयचा नस्कनुं आयु न बांध्यं होय तो ॥ १७६ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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