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________________ अन धर्मविपया सेव शुद्धिमधिकृत्य नाव्यते, तथाहि-॥ ११ ॥ धर्मस्यांतः शुछिः किन सर्वप्रणीतत्वादिधर्मप्रवर्तकानां सम्यग् जीवाऽजीवादितत्वस्याऽवधारणपुरस्सरस्खेतरसकाजीवरकापरिणामसर्वशक्तिता पयप्रयत्नशांतिमार्दवार्जवसत्यशोचब्रह्माकिंचन्यादिगुणमयत्वं च ॥ १२ ॥ वहिः शुचिः पुनर्वहिर्मुखजनरंजनशीतातपवर्या दिशेशसहननानावनवासादिकष्टषष्टाष्टमादितपरिक्रयादिः ॥ १३ ॥ ततश्च श्वपाकाजरणवत् कश्चन धर्मोऽतःशुखेरनावादतरसारो, वहिःशुझेर नाबाद् वहिरप्यसारच, यथा वेदादिविहितो अझस्नानधेनुकन्यादानादिधर्मः ॥ १८ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर हवे धर्म संबंधि शुछिन अाश्रीने तेज चोनंगी देखा ; ते कहे , ॥ १७ ॥ धर्मनी अंदरखी। शुकि, एट्ले सर्वज्ञ नुए रचेया धर्मने प्रवर्तावनाराओनुं सम्यक् प्रकारे जीत्र अजीव आदिक तत्वांना अव-18 धारण पूर्वक स्थल तया वादर पवा सर्व जीबीनां रवागनो परिणाम, तथा ते माटे पोतानी सर्व शक्तिथी प्रयत्न, शांति, कामळता, सरलता, सत्य, पवित्रपा], ब्रह्मचय तथा परिग्रहरहितया इत्यादिक गुण,मयपाणु होय , अर्थात् है। उपर वर्णवझा गुणो तेमां होय छे ।। १.७२ ॥ बहारी शुछि एटने वाह्य लोको जेया खुश याय, टाह, तमका || तया वरसाद आदिकना कष्टन सहन करवां, विविध प्रकारनां वनवास प्रादिक कष्ट, तेमज उस, अम आदिक नी नपस्यानी क्रिया श्रादिक रूप जाणवी ॥ १३ ॥ हवे तेथी काइक धर्म चांमाझना आपणनी फेवे अंदर २. शुद्ध न होवाची अंदरथी असार ई, तेम बहारथी पण शुझिनो अनाव होवाथी बहारथी पाण सारविमाना होय छे; जेमके वेद आदिकोमा कहेलो यक, स्नान, गोदान तथा कन्यादान आदिकरूप धर्म तेवो ने ॥ १० ॥
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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