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जन्मस्थाम न खलु विमलं वर्णनीयो न वर्णो । दूरे शोजा वपुषि निहिता पंकशंकां तनोति ॥ विश्वप्रार्थ्यः सक्ससुरन्निव्यदर्पापहारी । नो जानीमः परिमनगुणः कस्तु कस्तूरिकायाः ॥ १६॥ ॥ सूरिणा चिंतितं, अहो महतामपि कीहग्मतिविपर्यासः, जत्रा काचन नूरिरंध्रविगझत्तत्तन्मसक्लेदिनी । सा संस्कारशतैः कणार्धमधुरां वाह्यामुपैति युति ॥ डाडत्वरसोदिया तालावर येतां तु कांताधिया । श्लिप्यंति स्तुवते नमति च पुरः कस्यात्र प्रत्कर्महे ॥१७० ॥ नत्यिता मत्ता. त्रिनिर्दिनैर्नृपेन पूर्वहिः सौघं कारितं, मातंगीसहितोऽत्र वत्स्यामीतिधिया, नवगतं वप्पनटिगुरुणा ॥ ११ ॥
कस्तूरीने जन्मस्थान निर्मझ नथी तेम नेनो रंग पण प्रशंसवा सायक नथी, शोना नो तनी दूर रही। | परंतु शरीरपर लेपन करवाथी पण कादवनी शंका विस्तारे ; एवं अतां पण अमोने नथी मालुम पम के, नमां कचोक मुगंधिनो गुण रहेको बे? के जेथी आर जगन् तनी प्रशंसा कर जे, तथा ते सबळा सुगंधि द्रव्योना अहकारने हरे छे ॥ १६ ॥ त्यारवाद आचार्यजीए विचार्यु के, अहो! महान् पुरुषांनी पण केवी बुद्धि फरी जाय ? घणा निद्राथी मलना एवा ते ने मेनथी मशीन थयेली, नया संकमो गमे संम्कारोथी अन्या कण मुधि जे बहारनी मनोहर कांतिने धारण करे , एवी कोइक धमग सरग्बी मीने पण, हृदयमा नन्वर| सना मोजांमओयी जेनी मति निर्मळ थयेनी , एत्रा मनुष्यो पण कानानी बुद्धिथी नेतीने आलिंगन करे के, । म्नव , नया नम पण जे. माटे हवे अमो कोनी पासे पोकार करीये ।। १७० ॥ पछी मला नळ्या वाद गनाए त्रण दिवमोमां नगरनी बहार मेहेन नैयार कराव्यो । एनी बुद्धिशी के, ने मुंबकी महिन हूं न्यां रहीश ; पछी ने बावत वपनाहजी गुरुने मानुम पी ।। १७१ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर