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________________ ॥ १४७ ॥ सामान्यतो जीवानाश्रित्याप्येवमेव चतुर्जगी वाच्या, नवरं श्राद्धा इति स्थाने के चिजीवा इति वाच्यं दृष्टांताश्च यथाई साधुश्राद्धादयः सर्वेऽपि तत्रावतार - या इति ॥ १६ ॥ मत्वेति गुर्वादिगता इमा श्रतु- नंगी:सदांगीकृतशुद्धदर्शनाः ॥ तया यतध्वं जक्वैरिणो जय -- श्रियं वृणीध्वं जविनोऽचिराद्यथा ॥ 99 ॥ ॥ इतिश्रीतपागच्छेश्री मुनिसुंदरसूरिविरचितेश्री जपदेशरत्नाकरे रत्नदृष्टांतेन गुर्वादिस्त्ररूपव्यावर्णनरूपस्तरंगः सप्तदशः ॥ ; श्रीने पण एत्रीज रीते च नंगी जाएवी एवं विशेष के, आवकाने का ऐ ही साधु श्रावक आदिकां कळतो पण यथायोग्य रीते उतारखां | ।। ७६ ।। एत्री रीते गुरु आदिक संबंधि आ चोनंगी जालीने, हमेशां अंगीकार करेल के शुद्ध दर्शन जोए एवा है किलोको तमो एवं रीते यन्न करो ? के जेथी संसाररूपी शत्रुनो जय करवानी लक्ष्मीने नमी तुरत वरो ॥ 99 ॥ हवे सामान्पर्य जीवांने केटलाक जीवो एम कहें की ॥ एवी ते श्री तपागच्छमां श्रीमुनिसुंदर सूरि रचेला श्री उपदेशरत्नाकरमां रत्नना दृष्टांत करीने गुरु आदिकनां स्वरूपने वर्णन करणारूप सत्तमो नरंग समाप्त यो. ॥ श्री उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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