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________________ ॥४ा आस्तां तस्योपकाराऽनावः, प्रत्युताचायें सूत्रेवाऽपकीर्तिमपजायते, यथा न सम्यक् कोशट्यमाचार्यस्यव्याख्यायां, इदं वाऽध्ययनं न समीचीनं, कथमयमन्यथा नावबुध्यते, इति ॥ १७ ॥ अपि च तथाविधकुशिष्यपाउने तस्याऽवधानाऽनावात् उत्तरोतरमूत्राऽर्थाऽनवगाहनतः मूरेः सकलावपि शास्त्रांतरगतौ मूत्रार्थो दंशमाविशतोऽन्येपामपि च पटुश्रोतृणामुत्तरोत्तरसूत्रार्थावगाहनहानिप्रसंगः ॥ १८ ॥ नक्तंचआयरिए सुत्तमिय । परिवाओ सुतअत्यपशिमंथो ॥ अन्नेसि पिय हाणी पुट्टाविन मुख्या वंका ॥१५॥ श्रीनपदेशरत्नाकर वटी तने नपकार न पाय, ए वान तो दूर रही, परंतु नझटी आचायनी तया मृत्रनी पण अपकीर्ति थाय ने जमके, व्यान्न्यान आपवामां प्राचार्यनी हुशीयारी नथी, अयवा आशाख मा ( मुगम ) नयी, जो नम न होय तो आने पनिवार केम न आगे ? पनि ॥१७॥ बळी नेवा पकारना कुशिष्यने जणावबायी अन नेने ने अन्याम म्मरणमां नहीं रहेवायी प्राचार्यने पण नुत्तगेनर मूत्रायोंर्नु अवगाहन न यथायी, शास्त्रांवरमा रहेया। मनां मूत्रार्श नाशने प्राप्त थाय जे अने नेथी बुझिवान एवा बीमा श्रोताओन पण उत्तरोनर मूत्रायन जाणवानी हानिनो प्रसंग थाय रे ।। १० ।। कहा ले के-मृगशेनीया मरवा कृशियन जणवायी) आचार्यनी नया मूत्रनो अपवाद याय के भूत्र अर्यन ओलयवापणुं थाय में नया अन्य श्रोताओने पण हानि थाय के केमके म्पश कयायी पग कई वांकाणी गाय दाती नयी ।। १५ ।।
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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