SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मायनत्ति. मारवस्थ वेषु स्वपा वृष्टिः सिकतास्वव विनीयते, न तु ज्ञायतेऽपि. बहुतरादिवृष्टौ सामान्यतृणानां करीरशमीवनावमादीनां तरूणां चपलमुद्गादिनां धान्यानां च प्रायो नारसानामेवोद्गमः ॥ १६ ॥ न च दूर्वादीनामाम्रराजादनकदीनाशि करीपूगनागवनीमाङ्गादितस्वीरुधां शाधिगोधूमादिधान्यानां, गुमखंमशर्करादिदतुकंशुवाटिकादीनां वा प्रायः सरसानां समुत्पत्तिः॥ १७ ॥ एवं केचिज्जीवेषु स्वदपे गुपदेशे न काचिरपरिणति: १७ ॥ मरुस्थळ एटर माम्बामनी मी, के जमां ययंत्री स्वरूप वृष्टि रनमाज समा जाय , अने जपानी पल नयी; अन कदाच न्मां जो वारे वृष्टि श्राय तो. सामान्य काग्नुं वास, केर, खीजा आदिक वृतो : | नया चोला मग आदिक धान्यो. पम प्राय करीन ग्म रहिन पदायानी उन्पत्ति थाय जे ॥ १६ ॥ परंतु | प्रायें करीने ग्मवानां एवां ; (ो। आदिक घासनी, आंबा, गयण, कंब, नाळीयरी, सापारी, | | नागग्वेन तथा द्राक आदिक वृको तथा बनमीओनी, चोखा, गहुँ आदिक धान्यानी, अथवा गोळ, | खांझ नथा साकर आदिकना हेतुरूप एवा संसाना बाद प्राधिकनी उत्पत्ति पती नथी. || ॥ १७ ॥ एत्री रति कटनाक जीवोंने स्वप गुरुपदश मलने छते, कं, पण धर्म परिणमतो ||| नयी, ॥ १० ॥ श्री उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy