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अथ त्रयोदशस्तरंगः
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एवं बहुधा श्रोतृविषयं योग्यायोग्य स्वरूपं निरूप्येदानी योग्यानेव कतिचिदाह-मूसम् अत्यी समत्य मज्जत्य | परिख्वगंधारगावि से सन्नू ॥ अपमत्त थिर जिईदीप्र | धम्मस्स पसादगा पायं ॥ १ ॥
एव तच प्रकारे श्रोताओं संबंधि योग्य अयोग्यनुं स्वरूप निरूपण करीन, हवे केला योग्य वर्णन. करें -- मूलनार्थः अथ समर्थ. मध्यस्य परीक्षक, धारक, विशेषज्ञ, प्रमाद विनानो स्थिरचित्तवाला तया जितेंद्र, एटा मायें करी धर्मा प्रसाधक पटले योग्य जे ॥ १ ॥