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________________ - - - - - ये पुनः निसंगल्या सम्यग्दर्शनचारित्रादि वमंति, ते शुन्नधर्मवासं प्रतीत्य वाम्याः. बोधसंगत्येकविंशतिकृत्योऽईधर्मत्यागिश्रीहरिनमूनिशिष्यपपश्चात्तपझ्झझितविस्तराप्रतिबुद्धश्रीसिछर्षिवत् ॥ १४ ॥ यं तु कुगुर्वादिकुसंगतावपि सम्यग्दर्शनचारित्राहि न वमंति, न शुजधर्मवामं प्रतीत्याऽवायाः, श्रीयावच्चापुत्रगुरुप्रतिवोधितशुकपरित्राजकशिप्यसुदर्शनष्टिबत ॥ १८ ॥ तेषु ये शुन्नधर्मवासं प्रतीत्य वाम्याः, अशुजधर्मवासं प्रनीत्याऽवाम्याश्चत जजय अयोग्याः. शेषात्रया योग्याइति ॥ ॥ श्री उपदशरत्नाकर, बळी जो कुगुरु आदिकन। संगनिथी सम्यग दर्शन नया चारित्र आदिकन वमी नाव ने, तओ शुज | धर्मनी वासनाने अाश्रीने वाम। शकाय तेवा कहवाय में; अन नवा वाचनी संगनियी एकवीसवार जैन मनो त्याग का नारधी हरिजऽमृग्निा शिष्य, नया पाच कथा श्रीहरिजशरिए रचती ललितविस्तगयी प्रनिवाघ पामला श्रीसिछपिनी पत्र जागवा ।। १७॥ बळी जश्री कुगुरुवादिकोनी कुसंगति हात बने पर सम्यग दर्शन तया चारित्र आदिकने वमना नयी नयी शन धमनी वासनान आश्रीन न वामी शकाय नेवा हवाय : अने नवा श्रीयाव-| सापुत्रगुरुप प्रतिगंधवा शुकपरिव्राजकना शिष्य मुदर्शन शनी एवं जाणवा ॥ १७ ॥ तंग्रामा जो शूज -18 मनी वासनाने आश्रीन वामी इकाय तवा नया अशन धर्मनी वामनान आश्रीन जोन वामी काय नेवाः एम 18 वन काग्ना अयोग्य मनुष्यो , अन बाकीना त्राण प्रकाग्ना योग्य मनुष्यों के 20 ॥
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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