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॥१५॥
अथ अष्टादशस्तरंग:
पुनः प्रकारांतरेण श्रीगुर्वादिस्वरूपं । प्ररूपयति--॥ मूनं ॥--चयाणकिरिआ हि । सारा--सारा जहा हुंति चनविदकवावा ॥ तह गुरु सीसा साक्य । वायाविणयाश्कम्महिं ॥ १ ॥
वळी प्रकारांतरी श्री गुरु आदिकार्नु स्वरूप कह -- मूळना अर्थः। --जेम वचन अन क्रियाक करीने सारवाळी तया सार बनानी एम चार प्रकाग्नी खोपत्री दाग , नम गुरु, शिष्य अन श्रावको वचन नया बिनय आदिक क्रियाकी चार प्रकारना होय ॥१॥
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