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________________ अजिज जोश जो । परिज निअकुलकमो जेण ॥ कंष्टिएवि जीए । तं न कुजीणेहिं कायव्वं ॥ १६ ॥ इति, प्रातः श्रीआमोऽपि तत्सदनं प्रेक्तुिं ययौ, अपश्यच्च तानि काव्यानि यया यथा, तथा तथा नमो नष्टो मुग्धाछत्तुरमोहयत् ॥१४॥ तत आमः श्यामास्यो भृशमन्त्रतप्यत व्यमशच्च, मम मित्रं विना कोऽन्य एवं बोधयेत्, श्दानी कयं खमास्यं दर्शये । १७७ ॥ मम बहिरेव शुद्धिं विधास्यति, धिग्मे जन्म सकनक, इति ध्यात्वा स तत्रैवादिशञ्चितायै पार्श्वस्थान् ॥१७॥ ॥ तेऽनिच्छतोऽपि तं नूपादेशं व्यधुः, इदं राजन्नोको ज्ञात्वा गुरोरने पूच्चक्रे ; ततो गुमस्तत्र गत्वाह ॥ १० ॥ जेथा करीने दुनीयामां बना पामोये, नया नयी पोतानो कुबक्रम पत्रिन याय, ते कार्य कुलीन | माणसोए कंचे प्राण आवे ताप ग न करवं ॥ १७६ ॥ इति के प्रनाने आम्गना पाण ने महेव जोडा गया, नथा जेम जेम ने काव्याने जोचा लाग्यो, तेम तम वधयी जम धन्नुगर्नु विष, तेम तेनो जम नष्ट थवा माग्यो 8॥ १७ ॥ पड़ी आपराजा खयाणा मुखवाळो थश्न घणो पश्चाताप करवा झाग्यो. नया विचारवा वाग्यो के, माग मित्रविना बीजो को मने आती रीने प्रनिधेि; हवे हुँ मारु मुख शं बता ? ॥ १७ ॥ हवे नो मन अमिन शुद्ध करशे, मारा आ कलंकित जन्मने धिक्कार 3 एम विचारितणे त्यांन नोकरांने चिता माटे हमक कों: ॥ १५५ ।। तेश्रोए इच्छाविना पण राजानो ने हुकम बजाव्यो; पछी ते यातनी राजदरबारी आने खबर पवायी, नेओप गुरु पामे मा पोकार कों; न्यारे श्रीवपत्नहिनी महाराज भ्यां जा कहेवा वान्या के ॥ १७ श्री उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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