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________________ ॥१०१॥ कुलवास के हि यतिवषोऽस्ति नतु क्रिया, मागधिकागणिकाप्रसक्तेः, विशालानंगादिमहारंजा दिप्रवर्त्तकत्वाञ्च : : नाऽप्युपदेशः, सामान्यसाधुत्वेन तदनधिकारित्वात्, ताहगुन्मार्गगामिबुद्ध्या गुरुकुलवासत्या गिनस्तस्य शुद्ध मार्गप्ररूपकत्वाऽसंजवाच्चेति प्रयमो जंगः ॥ १४ ॥ कौंचपचिणि यथा रूपं नास्ति, दर्शनीयवर्णाकाराद्यजात्रात् : क्रियापि न, कीटाद्याहारित्वात् : केवलमुपदेशोऽस्ति मधुरगंजीरजापित्वात् ॥१५॥ तथाच श्रीसमवायांगे वसुदेववाके 'सारयनवय (एममहुरगंजी रकुंच निग्घोसडुंडु हिसरा' इति तद्वृत्तिलेशः शरदि जव: शारदः, स चासौ नवं स्तनितमस्मिन्नि घोष, स चेति समासः ॥ १६ ॥ कुळवाक ऋषिमा तिनो द्वेष तो हतो, परंतु (शु) क्रिया नहोती; केमके तेमने मागधिका नाम गएिको प्रसंग थयो हतो; तथा विशालनगरीने जोगवा यदिकना महान आरंजनी तेमणे प्रवृत्ति करावी हनी; तेमज तेमनी पासे उपदेश पण होतो. केमके सामान्य साधुप होवार्थी ते संबंधि तेमने अधिकार नहोतो; तेमज तेवी रीतनी कुमार्गगार्मी बुद्धिवमे करीने गुरु कुळमां नहीं रहेनारा एत्रा तेमने शुरू मार्गनी प्ररूपणा करवाना असंभव : एवी रीत पहेलो जांगो जावो || १४ || वळी क्रींच पक्षिम जेम रूप नथी, केमके तेनो वर्ण तथा आकार आदिक देखाant नथी; तेम तेनाम क्रिया पण (शुभ) नथी, केमकं ते कीमा आदिकोण करनार जे केवळ तेनाथां उपदेशनां गुण : केमके ते मधुर ने गंजीर स्वर बोलनारो से ।। १५ ।। श्री समवायांगसूत्रम वासुदेवना वर्णनमक के 'शरद ऋतुना नवा गर्जना करता [रसाद सरखा मथुर ने एवा कौंच पकीनावर सुरखा तथा दुई जिना स्वर सरखा स्वरवाला वामुदेव' तेनी टीकानो अंश कहे ; शरद ऋतुमा उत्पन्न ते शारद कड़ेवाय एको तथा नयो ने गजरत्र जेना इब्दमां ते, एवो समास थयो ।। १६ ।। श्री उपदेवा रत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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