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मदिरामत्त व गतविवेकचैतन्योऽनूतु, ततो गुरुन्निस्तत्प्रतिबोधाय गाथा प्रैपि ॥३६॥ नचिन्ना किंनु जग । नहा रोगा य किं गयं मरणं । पिहिमं च नरयदारं । जण जणी ना कुण धम्मं ॥ ३६६ ॥ तो वाचयित्वा सद्यः प्राबुपत. सम्पग्धर्ममाराधयामामति ॥ ३६७ ॥ अन्य तु मित्रप्रतिमा, ये गुरुषु प्रीति परां वहमानास्त युक्तं धर्मोपदेशपदं परमार्यहितबुद्ध्या प्रतिपद्यते, आत्मानं च गुरूणां वजनादःयधिक मन्यः । ते ॥ ३६७ ॥ परं ययावसरं विशेषकार्यादी प्रश्नादिवहुमानमपेक्षते, अनापृष्टाश्च म
नाग् मयंतीति, तथा चागमः-॥ ३६॥ मित्तसमाणो माणो । ईसिं रूस 1 अपुत्रिओ कजे ।। मनंतो अप्पाणं । मुणीए सयणाओ अज्महि ॥ १० ॥
जाण मदिराशी उन्मत थयो होय नहीं, नेम त निर्षिकी गयो, त्यारे गुरुमहागजे नन प्रनिबाधवा माटे | नीचे मुजव एक गाया मोकनी । ६५ ।। रॉ पमपम चाव्यु ? शं गेगो नाश पाम्पा : शं मृत्यु नष्ट थयु ? नया शं नरकन हार बंध थयु ? के मेरी मागम धर्म नयी करती ॥ ६६ ॥ ते गाया चांचीन ने तुरतज || प्रनिवाष पाम्पो, नया सम्पम् धर्म अागा द्वाप ।। ६७ ॥ कळी करनाक श्रावको नो मित्र सखा होप छ, के जेनो गुरु प्रत्ये परम प्रोनिने धागा करता पका ने योग कहेना धमिशन पानयहिन वृद्धियी म्वीकार छ,
नमन गुमना आमाने वजनधी पाण अधिक मान ने ॥ ३३ ॥ पम्न अवसर पद विशेष कार्य आदिकमा १ प्रश्न आदिकना वह माननी अपका गवे , अन ने बावत जा नेमनी मनाह न बेवामां आंव. तो ने जग गीसा पाण नाय छ; आगममां पाप करेके || ६ | मित्र समान श्रावकनी जो काप पम्चे मनाइन वामां आवे नी ने गुरू माय माऽ जायकमके ने गुम्ना प्रामाने बजनयी पग अधिक मान 5110!
श्री उपदेशरत्नाकर