________________
सरस्वती साध्वी रूपाप्तिगर्द जिल्लनृपादिवत् सुकुमालिका झी स्पर्शसक्त जितशत्रुनुपवच्च, तत्संबंधसंग्राहकः श्लोकश्च यथा ॥ ७० ॥ बहुन्यां शोणितं पीत- मुरुमांसं चक्कितं ॥ जर्ता च निहितः कूपे साधु साधु पतित्रते ॥ ७१ ॥ इति ततो जितें sa एव धर्मस्य योग्यः, एतं अर्थिप्रभृतयो धर्मस्य साधका जवंति प्राय इति संटकः ॥ १२ ॥ प्रायोग्रहणाच्च तादृकक्षेत्रादिसामग्रीवशात् क्वचिदप्रातधर्मेण केनचिय जिचारो नाशंकनीयः, धर्मसाधकत्वोक्त्या च धर्मोपदेशानां योग्यत्यमा कितमेत्रेति ॥ ७३ ॥ योग्यान् स्वरूपादवगम्य सम्यगित्युल्लसदेशनया बुधास्तान् ॥ सदानुगृह्णीध्वमिहोजयेषां स्फुरति जावारिजयश्रियो यत् ॥ १४ ॥
मज सरस्वती साध्वीना रूपयी मोहित थंयना गई जिल्लराजा रादिकनी पत्र तथा मुकुमालिका गणना स्पर्शमां आसक्त या जिनशत्रुराजानी पेत्रे तेना संबंध संग्रह करनारो क नीचे मुजब जे ॥ १० ॥ बन्ने हायामांयी रुधिर पीधुं, नया सायनुं मांस वाधु, नेमज जरने वाम नांख्यो माटे पविता तो मारी नीवी ! ||9|| इति | माटे जितेंद्रिय मनुष्यज धर्मने योग्य ठे; एवी ते उपर वर्णवेना अय आदिक मनुष्यो माये करीने धर्मना साधक थाय छे; एवो संबंध द्वे ॥ ७३ ॥ अहीं पाय शब्दना ग्रहणथी नेत्री रीतनी क्षेत्र आदिकनी सामग्रीना वशयी नयी प्राप्त धन धर्म जेने एवा कोल्कनी साये क्यांक व्यभिचार संबंधी शंका करवी नहीं; धर्मं साप कहेवाथी धर्मोपदेश मन्ये योग्यपणं पण कहेज छे एग जाएं। ये || ३ || एवं ने हे पंरितो ! जनसायमान थती देशनात्रमे करीने सम्पम् रीते बनेना स्वरूपथी योग्य मनुष्योने जालीन, नयांपर हमेशा अनुग्रह करो के जेथे जावशत्रुओने जीतवानी लक्ष्मीओ स्फुरणायमान थाय ॥ ७४ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.