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________________ ॥ ७॥ 2004006-0000000000000000000 पापासक्त चेतसि । धर्मकथाः स्थानमेव न अन्नते ॥ नासीरक्ते वाससि । कुंकुमरागो उराधेयः ॥ इति ॥ ६६ ॥ स्थिरो नामैकाग्रचित्तः, स धर्मस्य योग्य, अस्थिरचित्तानां वीरास्रवादिवब्धिन्निरपिवोधयितुमशक्यत्वात्, एकचित्तानिधकुमारघ्यमध्यात् श्रीवीरवचनाऽप्रतिबुधकुमारवत् ॥ ६७ ॥ जितान्यत्यासक्तिपरिहारेण वशीकृतानीप्रियाणि स्पर्शनादीनि येन, स जितेंजियो धर्मापदेशानां योग्यः ॥ १७ ॥ अजितेंघियो हि विषयतृष्णया बाध्यते, तद्बाधितश्च न श्रखते हितोपदेशाधेहिकमपि, दूरे धर्मस्य तथापि सीतारूपादिप्तरावणनृपवत् ॥ ६ ॥ s܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܘܬܼܘܬܘ܀܀ ܘܬܘܘܘܘܬܘܘ ܘܘܘܘܘܘܘܘܕܬܘܪܬ श्री उपेदशरत्नाकर. पापोयी आसक्त ययेत्रो चित्तमा धर्मकथाने नो म्यानज मनतुं नयी. केमके गळीथी रंगनां वस्त्रपर || कसरनो रंग चढ़! शकतो नयी इनि ।। ६६ स्थिर एटले एकाग्र चित्नवाने मनुष्य जाणवो, अने ने धर्मन योग्य छ वळी जेोर्नु मन अस्थिर , तेोने कीरामवादिनधिवासाओ पण प्रतिबोधि शकता नयी (कांनी पत्रे! तो के) एक चित्त नामना वने कुमारोमाया श्री वीरम तुना वचन यी नहीं प्रनिवौध पामेन्ना कुमारनी परे || ६७ ।। अत्यंत आसक्ति तजवावं करने जितेन , अर्थात् वश करेन डे सी आदिक इंद्रियां जो ने जि-18 तेंद्रिय कहेवाय, अने ते धमोपदेशने योग्य छ । ६० ।। वजी जो इंद्रियो जिनेती नयी एवो मनुष्य विपरनी तापायी दखी याय, अने यी हावी थयो यको आ नोक संधी हितापग पर पण ते श्रघा करती नयी: धर्म कया तो त्यारे दूरज रही; (कोनी पड़े तो के) सोताना रूपया व्याकुळ स्येला रावण नृपनी फेरे ।। ६ ।। E
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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