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________________ ॥१४॥ १००००००००००००००००००००00000000000000000 सम्यक्सामाचारीप्रवर्तनस्थिरीकरणादिकश्च, तत्र काचादिमणिवत् केऽपि श्रमणाः स्वोपकारपरोपकारान्यां रहितत्वात् हियावसाराः, पार्थस्यादय एव ॥ ३१ ॥ केचित्तु हितोयरत्नवदतरसाराः, स्वात्मोपकारहेतुसंयमगुणविकसत्वात् : बहिस्तुसाराः, खानलाद्यवस्थासु सुसाधूनां वैयावृत्त्यायुपकारपरत्वात् ते च संविझपाक्षिकादय एव ॥ ३३ ॥ तमुक्तं-कांताररोहमझा-एओ मगेनन्नमाश्कजेसु ॥ सम्बायरेण जयणा । कुणजं साढु करणिजं ॥ ३३ ॥ एते च मनाग् योग्याः, संविग्नपाकिकत्वस्य तृतीयमागेत्वात, यउक्तं-॥ ३४ ॥ तमन सम्यक् प्रकार सामाचारीना प्रवर्तनरूप क्या तेमा स्थिर करवा आदिकरूप पाण परोपकार जाणवो हवे त्या काचदिक ममिनी फे केटनाक साधुओ स्वोपकार तथा परोपकारथी रहिन होवायी वारीते सारविनाना ब, अने सेवा पासत्या आदिकोज ॥३१॥ कळी कंटनाका तो वीजा रत्ननी पत्रे अंदरयी सारविमाना होय बे, केमके तेश्रो पोताना उपकारना हेतुरूप एका संयमसुणयी रहित होय छै; परंतु बहारया तेओ सारवाळा होय || |जे, केमके सुसाधुआनी मांदगी आदिक अवस्थामा तेश्रो तेमनी वयाव आदिक उपकार करवामां तत्पर होय अमे तथा संवेगपत। आदिकोनेज जाए वा ॥ ३॥ कयु के के–कांतार (अटवी), रोध, (नगर-दुईदिनो घेरा) अछा (दुर्निङ आदिकाळ) अवम (बाल ) अने सानि आदिक कार्य प्रसंगे जे साधुनु कतत्र्य ते अति-|| आदरयी कर अर्थात् तेवे प्रसंग सुसाधु जनोने अत्यंत सहायजूत याय. एवो परमार्थ उक्त गायानो होतो संजवे || ॥३३॥ एवं जीतना ते संवेगपकीयो कक योग्य उ: केमके संवेगपीओनी त्रीजो मार्ग के. कधु के--॥३४॥ * मा गायाना पूर्वा नो अर्थ घट्ट श्रुतोशी जाणी सेवो.. ܂ भी उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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