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________________ 11 99 11 तथा च मुद्गशैक्षत्रिकुटचालनी समान शिष्यनेदप्रदर्शनार्थमुक्तं नाप्यकृता - संजयदुचा मिही कहा सोच उहियातु ॥ हि तत्यविधो ॥ ४१ ॥ सुमरिंसुसरामि नेयाणिं ॥ एगेण विसइ बीएणनीकरणेण चालणी याद | धन्नोत्य ग्राहसेस, जं पविस नीचा तुकं ॥ ४२ ॥ तत एषोऽपि चान्नणीसमानो न योग्यः, चावनीप्रतिपचनृतं च वंशदल निर्मापिततापसनाजनं, ततोहि बिंदुमात्रमपि जलं न स्त्रव ति ॥ ४३ ॥ उक्तंच -- तावसखजरक ढियं. चाल पिमित्रख्खु न सक्छ दपि । तनस्त समानां योग्यः ॥ ॥ कळ । मगशेड़ीयो पापाए. चिद्रवाळी घो तथा चालणं । समान शिष्योना भेद देखावा माटे जाप्यकार पण कंजे के मगोलीयां पापाए, छिद्रवाको प्रमो तथा नाली कथा सांजळवाने क्या छिद्रयुक्त घमाए ते स्मरण करें, अपने वीजा एका तमो तम करी शकता मारे तो एक बाजुथी पेसे के तुरंत बीजी वा जुए के ॥ ४६ ॥ यां बेसीने कथा सारी नये; त्यारे चाळणीएक के हुं तो एवी बुं के निकली जाय बे. माटे तुं धन्य त्यारे मगरोली वाक्यों के, हे चित्र घटा ! तारा प्रत्ये पण जें प्रवेश पाय जे तेज निकले ॥ ४२ ॥ मातेविट पण चाळणी सरखों के अने तेथे योग्य नयी चाळणीनं पिरुप बांसद बनांवधुं तापसनुं चाजन जाएः केमके तमार्थ । बिंदुमात्र पण जळ निकली ऋतुं नयी ॥ ४३ ॥ क के चाळीना प्रतिपकी दृष्टांत तापसनुं खप्पर छे के माथ एक बिंदु जे जल मरा कर नयी मांटे ते सरखो शिष्य योग्य ॥ ४४ ॥ - श्री उपदेशरत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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