SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महोज्ञानीत्युपजहसे नैमित्तिकः ॥ १८ ॥ अन्या चतुर्ज्ञान युगंधरगुरुरागमत् ॥ १५ ॥ राजादयस्तं वंदित्वा नैमित्तिकोक्तं कथं विघटितमित्यप्राः ॥ २० ॥ गुरुगढ़ ग्रहचारयोगेन द्वादशवार्षिकं डुर्निकं जाव्यपि कस्यचित् पुण्यवतो महता पुण्योदयेन सिं तत्स्वरूपं यथा ॥ २१ ॥ पुरिमालपुरे प्रवरदेवनामोच्छिन्नकुलः सदाऽयऽविरतत्वेन सर्वनक्की. अजीन कु भूत ॥ २२ ॥ अहो मोटो ज्ञानी ! नवी रीते निमित्तियानी हांसी पत्रा अगी ॥ ४७ ॥ हवे एक दहा भ्यां चार ज्ञानवाळा युगंधर गुरु याच्या ॥ १७ ॥ राज आदिको तेने वांदीने पृयु के (हे भगवान!) निमित्तियानुं कहेलं कम जवं एफयुं ? || २० ॥ काळ परुनार देतो. परंतु कोक पुन्यवानना मोटा गुरु क के ग्रहचाना योगयी वार वर्णनो एक यय. तेनुं वृत्तांन नीव मुजब . ।। २१ ।। पुरिमतान नामना नगरयां जनुं कुछ नष्ट ययेवु के सर्वही अजीर्ण रोगे करीने ने कुएं। पो. ।। २२ ।। 3 देव नामनी मनुष्य हमेशां अविरनिषणार्थ | श्री उपदेशरत्नाकर,
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy