SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ ७६ ॥ तत्र यो व्याख्यानमंल्यामुपविष्टः सर्वमर्थमवबुध्यते, व्याख्यानाडुत्थितश्च न किमपि स्मरति स बिष्कुटसमानः ॥ ३२ ॥ यथाहि विकुटो यावत्तदवस्थ एव गाढमते तावन्न किमपि जलं ततः श्रवति, स्तोकं वा किंचिदिति ॥ ३२ ॥ एवमेषोऽपि यावदाचार्यः पूर्वापरानुसंधानेन सूत्रार्थमुपदिशति तदवबुध्यते, उस्थितश्चेद्ध्याख्यानममंख्या: तर्हि स्वयं पूर्वापरानुसंधान विकत्वान्न किमप्यनुस्मरति ॥ ३४ ॥ यस्तु व्याख्यानमंमध्यामप्युपविष्टोऽर्धमात्रं विनागचतुष्कंवा हीनं वा सूत्रार्थमवधारयति, यथावधारितं च स्मरति स खंमकुटसमः ॥ ३५ ॥ वाद मां जे शिष्य व्याख्यान मंगळीमांवों को सर्व अर्थन जाणे वें, तथा व्याख्यानयी जे पाए याद रखी शक्तो नयी, ते शिष्य शिवाला वमा समान छ । ६२ । जैम द्रवाळ से ज्यांसुधि एवीज रीते गापा पृथ्वीवर गेलोज रहे डे, त्यांमुधि तेमां जय पण पाणी निकलतुं नथी, अने निकले ले, तोप यो अथवा किंचित निक्ले ॥ ३३ ॥ एवी ज्यांधिया आचार्य पण पत्रपरना अनुसंधान के करीने सूत्रार्थ उपदेश . त्यांमुधि ते ते जाणे, अने व्याख्यान मंगळीमांची जोडली जाय तो पपीते पूर्वापरा अनुसंधानना विकल्पथी कंप याद राखी शक्ती नयी ॥ ३४ ॥ जे शिव्य व्याख्यान मंगळीमांबर्स ने अथवा चोथो नाग अथवा नथी पए ओ सूत्रार्थ जाएं वे तथा जाया मुजब जे धारी राखे छे. ते जांगेला मा सखा ॥ ३५ ॥ श्री उपदेश रत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy