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________________ ॥ १६० ।। तटुक्तं – नृपैः कूटप्रयोगेण । वणिनिः कूटुचेष्टितैः ॥ विप्रेः कूट क्रियाकांमै—- मुं धोऽयं वच्यते जनः ॥ ३ ॥ एवं केचित् कुगुरवो मृत्येनैव सम्यक्त्वालोचनादिददते. प्रतिष्ठादि वा कुर्वते ॥ २४ ॥ चिकित्सावि कृत्वा विद्याप्रागत्यं तच्चमत्कारादिविधिमंत्रयंत्राद्यर्पण कार्मएवशीकरणा दिलाजाबाजादिनिमित्तशकुन मुहूर्त्तादि च प्रकाश्य दानादि गृह्णांति ॥ एए ॥ विविधावर्जनादिनिर्वशीकुर्वति च धर्मार्थनोऽपि जनांस्तथा यथा नान्यान् सुविहितगुरुनप्याश्रयंति, प्रत्युत हसति तांस्तदनुसारिए श्र ॥ ए६ ॥ के कछे के राजाओ जो सोकोने खोटा आदिक प्रयोगो को खोटी चष्टार्थी तथा ब्रापोमा क्रियांमाथी गं ॥ ५६ ॥ एवी गुरु किमन लेनेज समकीत आलोय आ ठिक हो, अथवा प्रतिष्ठा आदिक करे छे || ४ || तेमज वैद्यक (औषध) आदि करीने तथा विद्यानी व संबंधिका आदिक विधि, मंत्रयंत्र आदिकर्तु आप कामण, वशीकरण आदिक बाज अज्ञान आदिकनिमित्त, शकुन, तथा मुहूर्त आदि प्रकाशाने ते दान आदिक ग्रहण करे ॥ ५५ ॥ वळी नाना कारी खुशी वायादिक मे करने कर्मार्थ लोकोने पण एका तोते वश करे छे के, जी तो बीजा उनम गुरुनि पण सेना थी; परंतु टलटी तेचा उत्तम गुरुओनी तथा तेना सेवकानी हांसी करे ॥ ५६ ॥ श्री लपदेशरत्नाकरे.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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