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________________ तया चाह---कष्टं नष्ट दिशां नृणां यददृशां जात्यंधवैदेशिकः। कांतारे प्रविशत्यत्तीप्सितपुरावानं किमोत्कंधरः ॥ एतत् कष्टतरं तु सोऽपि सुदृशः सन्मार्गगांस्तहिद --स्तझाक्याननुवर्तिनो इसति यत्सावकमज्ञानिव ॥ ७ ॥ यमायामेवंविधा ववोऽपीति न दृष्टांतोपन्यासः, एते च निजाजीविकामात्राद्यर्थ धर्मस्य श्रुतस्य च विक्रयकारिणः परयोकपराङ्मुखाः स्वयं संमारे मजति ॥ ए८ ॥ स्वाश्रितान् सन्मार्गनशकुमार्गप्रवर्त्तनादिनिर्मजयंति च; नक्तं च बाकिकरपि,-मंत्रजेदी पृथपाकी । आदेशी वेदविक्रयी ॥ तमाया योपिलस्त्यागी । पंचेत ब्रह्महाः स्मताः ॥ एए॥ वळी कj के-दिशा चूकी गयक्षा एवा अंध मनुष्याने जन्मांध परदेशी उंची मोक करीन, नोना || इनि नगरना मार्ग में बनमां देखा , ने बददायक वाचन पनु पानी थी पण वशर रखकारक के, उत्तम दृष्टिवाला तथा उनम मागे जनाग, नया ते मागने जाणनाग, अने ते जात्यंधना वाक्यने नहीं अनुमग्नाग एवा लोकांनी ते जे अबझा सहिन अज्ञानीआनी पवे जाणीने हांस। करे ।। ५ ।। प्रा दुःम्बमकानन विष एवा चणा दग्वायं छे, माटे अहीं नेओन दृष्टांत कयुं नया : एत्रा कुगुरुओं मात्र मनानी आजीवीकानेज अथ धर्म तथा ज्ञानने मंच , तपज परलोकची पगडमग्य यया थका पति संसार सागरमा म के ।। 4G | नमन पाताना आश्रिताने. पाण, जनम मागयी पामीन तथा कुमार्गमा प्रवत्ताचवा आदिक कर न बमा अन्य दश नीओए पण कदु में के–मंद करनार, जूदी रसीद करनार, वेदने वेचनार. नथा युवान स्वीनी स्याग करनार || ए पांचने ब्रह्महत्या करनाग का ।। एए| श्री उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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