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________________ ॥१०॥ ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० तया कंचिद्गुरुपु साधुमात्ररुप ऽयमस्ति, न पुनमपदेशः, गुर्बननुज्ञातत्यादिना तदनधिकारित्वात, धन्यशाझिनधादिमहर्षिवत, इति पष्टो जंगः ॥ ४५ ॥ कीर: शुकः, स च बहुविधशास्त्रसूक्तकथादिपरिझानप्रागज्यवानिह गृह्यते, स च रूपाणं रमणीयः, क्रियया सहकारकबीदामिमीफलादिशुच्यादागदिमान् : उपदेशपटुश्च चेनोहरवचनत्वात ॥ १६ ॥ कस्यचिनयाविधावसरोचितहितोपदेशकत्वादपिः श्रूयते च कहासप्तत्यादौ, शकेन हासप्तत्या कथानकः प्रोषितपतिकायाः श्रेष्टिपन्याः परसंगनिवारणेन शीनरक्षाकगणादि ॥ ४ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर पूर्वी गीत केटलाक साधु मात्रप गुरूओमां वेध अन क्रिया ए बचे तो होय जे. पग्नु उपदेश होना नया; कमक गुरुण नेम करवानी अनुझा नहीं आपका आदिकव करने पन्ना शामिनद्र आदिकनी पत्रे उपदेश । देवाय नोन अधिकार होना नयी वी रीनं नहा जांगा जाणवो || ४५ ।। कीर पापट, अहीं एव। पोपटर्नु प्रहण कर के, जे घणा प्रकारना शामांना उत्तम शाको नया कया आदिकनी काननी कुगचाळो है न पोपट रूपें मनाहर होय , तेम क्रियाव करीन पण आंत्रा, कंल, दारिम, आदिकना पवित्र आहारवाळा ७होय . तम मनोहर वचनवाली हावापी उपदेशमा पास पण कहवाय ने । ४६ ।। केमके तबो पोपट काटने अवसगचिन हितोपदेश पर आप ने युमायनरी आदिकमा सकळाय के पापट वहानेर कथाओवकं करीना | परदेश यात्रा पनिवाळी शनी स्त्रीने पग्नो मंग निवागण करवा वझे करीने नागीना सीझना रकण आदिकनुं | कार्य कय ॥४ ॥
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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