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________________ आहारे शुचिता स्वरे मधुरता नी निरारंजता । बंधो निर्ममता बने रसिकता वाचावता माधवे । त्यक्त्वा तं विजको किवं मुनिवरं दूरात्पुनानिकं बंदत बत खंजनं कृमिनुजं चित्रा गतिः कर्मणां ॥ ४२ ।। इति. नतुझपं काकादितोऽपि निकृष्टरूपत्वात तथा केषुचिद् गुरुपु सम्यक् क्रियोपदेशो स्तः, न तु रूपं, कुतश्चितोर्यतिलिंगाऽधारिस्वात, सरस्वतीवाबनाहेतुकयतिवेपत्यागिश्रीकारिक सूरिवत् ॥ ४३ ॥ इति पंचमो जंगः ।। हंसः प्रसिधः, यथा तस्मिन् रूपं प्रसि किया चकमानामाद्यानारादिरूपाः न तूपदेशः, पिकशुकादिवत् हंसपक्किणि तदप्रसिधः ॥ १४ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर जेना आहारमा पवित्रता, स्वम्मा माधुय जे. माळी वांधवामा निरानिपाणं हे बंधमा निमम छ. वनवासमा रसिकपाणु ता वसनमा जैन वाचाल्पा से, एवा का किन पही सपा मुनिबग्न र मनि, कीमा खानाग खंजन पकी सरग्वा कपटी यतिन अरर : बांका चंदन को चे, माट कमॉनी विचित्र गति रे ॥४॥ इति कली ने कोकिलमांम्प होनुं नयी, कमक ते तो काममाय पण खगव रुपवाळी जे एवं। रीने कटाक गुरुआमां सम्यक प्रचारना निया अन नपंदा ता होय , परंतु पापी रूप हो नया कमक काक कारणने बीच सरम्बनी साश्त्रीन वानवा माटे मुनिना बंप तजनारा श्री काक्षिकमूग्निी पो मुनिना वेपन ने धारण करना नय। ।।४।। पनीर पांचयो जांगी जाणवी ॥ हम ए प्रसिद्ध नः जम नमां रूप प्रसिक नेम क्रिया पण कमळ नावना आहार आदिक रूपी परंतु तेनामां कोयन नया पोपट आदिकनी पंजे नुपदेशना गुण नयी कमक हंस पीना नादनी प्रसिछि नर्थ। ॥ ४४||
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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