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________________ ॥ १७१ ॥ केण कोल्हे । विणा वि रवणय विमसमुदो || कोत्युहरयणं पितरे । जस्स सो महो ॥ १४८ ॥ मुक्काहवि करत फिes पत्तन्त न पत्ताएँ ॥ तुइ पुण जाया जइहो६ । तारिसी तेंहि पतेर्हि ॥ १४७ ॥ जे केवि पहूम हिमंगमि । ते उच्चारित्या || सरसा जमारामको विरसा पत्तेसु दीसंति ॥ १५० ॥ ततः स्मानिर्वदि कार्य वस्तदा धर्मस्य भूपतेः ॥ सन्नायां उन्नमागत्य । स्वयमापृच्छयता हु ॥ १९९ । जाते प्रतिज्ञानिर्वाह । यास्तव किं ॥ प्रहिताः पूज्यै - रिति शिक्षापुरस्सरं ॥ १३३ ॥ प्रधानाः एक कौस्तुन मणिबिना पण समुद्र रत्नाकर कद्देवाय छे तेमज जेना वयस्यझमां कौस्तुन पणि रहेस जे, ते पण महा मूल्यवान् कहेवाय से || १४० || हे उत्तम ते पत्रोने जी दीघां, नोपण पत्रोनुं पत्रवणं जातुं नयी, परंतु तने पण ज्यारे ते पत्रो होने, न्यारेज गया पजे || १४ || आ पृथ्वी रुझवर जेटला. मोहोटा कहेवाय बे, ओ मेसीना सांगा सरिखा है, केमके ते जमीनी अंदर (पोकळीओनी अंदर ) रसाळा के, नया पात्रोनी अंदर ( प-पत्रोनी अंदर ) संविनाना देखाय ॥ १५० ॥ माटे, नमारे जो अमारी साथ प्रयोजन दोष तो धर्म राजानी सनायां गुप्त आपनि तमारे पोसान यहाँ तुरत पूछी जनुं ॥ १५१ ॥ नेत्री रीते मारी प्रतिक्षा मेंपूर्ण चंपेथी मा तपारी पास आ एवं ते विज्ञापक आचार्यजीए प्रधानाने मोकव्या ।। १२२ ।। , भी उपदेशरत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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