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________________ प्रातः पुनरागात्, परं तदापि प्रकारः स एवेनि विन्नो गतः सः तया चोनं-- प्रणवहि अस्स धम्मं । माहु कज्जिाह सुटु दि पिअस्स विच्चायं होइ मुई । विज्काय ग्गिंधमंतस्स ॥१३॥ अन्त्यधिष्महि च, अप्युट्यसलब्धिनिधिः प्रबोधयंद् वहपदेशेरपि कोऽनवस्थितं ॥ जेतुं तडिहिमक्षं न पुष्करावर्तोऽपि धाराशनक्ष नकोटिन्तिः ॥ १४ ॥ इति ॥ प्रमत्तो विषयकषायविकथानिप्रादिप्रमादप्नावितवेतनः, स च धर्म न बुध्यते, प्राग्नवजातचित्रमहर्षिप्रतिबोध्यमानब्रह्मदनच क्रयादिवत् ॥ १५ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर की प्रजान फरीन चटजी पधार्या परंतु न दिवस पाण नन हाल जापा, नयी बिचाग नटजी नी पाकी थाकीने चाल्या | गया. वळी कथुछ के–पिय एका पण अनस्थिन एट्ले व्या चिनाका मनुष्यने नुत्तम एवा पण धर्म सनळावबा नहीं, | कमके कुकला अग्निने धमवायी नवाट पाहामु ग्वाब थाय रे ॥ १३ ॥ बळी अमाप पण कयु के जनी पासे || बन्धिश्रोना जमार जन्याममान थइ रहयो , एवी पण कोण मुनि घणा उपदेशोयी पाए अनवस्थित चित्तवानाने प्रवाची शक नम ? (अर्यान कोई नयी) केमके पुष्कगवन मेव पण पातानी सेंका, बावा नया क्रोमो गर्म धागायी पण विजळीनी अग्निन वाग्वान समर्थ नयी ॥१४॥ इति॥ प्रमादी एटा विषय, कषाय, विकथा नया निद्रा | | प्राधिक प्रमाद युक्त चिनवालो नाणवो, अने ने पूर्वजन्ना ना एका चित्रपहर्षिया प्रतिबोधाना ब्रपदनचक्री श्रादिकनी पत्र धर्मन नागी शकलो नयी ॥१५॥
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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