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________________ इति श्रीनवनावनायां ; केचित् पुनहिंसाऽसत्यस्तैन्याऽब्रह्माद्यविरता मयाऽजयपेया:यदि विवेक विकला इहापि ज्ञानिनिवदि:करणधनराज्या दिनों प्रियाचंगच्छेदकुमारगादि प्राप्नुवंति ॥ १३४॥ प्रेत्य नरकादि च जीमादिवत्, तथा व जवनावनायामेव, - पावं जी | कुणिमाहारेण कुंजरनरिंदो ॥ आरंजेहि यश्रयो । नरयगईए उदाहरणा ॥ १३५ ॥ न च श्राद्धनाममात्रात्तेषां साधारता कापि, नाममात्रस्याऽऽ साधकत्वात् : तत्त्वे च जोमादीनां मंगालादिनाम्ना प्रसिद्धानां मंगलायार्थसाधकत्वापत्तेः ॥ १३६ ॥ एम श्री जवनावनामांक . बडी केला तो हिंसा, असत्य, नोरी, तथा ब्रह्मादिकयी नहीं विरति पाझा, अजय, अजय पेय, अपेय आदिकना विवेक त्रिनाना मनुष्यों ड़ी पण ज्ञाति बहार य धन नया राज्य आदिकमो नाश, इंद्रिय आदिक अंगोनो छेद, तथा कुमान आदिकने प्राप्त थाय ते ॥ १३४ ॥ तया क्रमांप जीम आदिनी पे नरक आदिक पामे छे; कळो जयनानामजि क छे के, जीवहिंसाथी जीम, अजय भोजनयी कुंजर राजा, तया आरंजोयी अक्ल करके गये। एवी रीते ए नरक गतिना उदाहरणो जायां ।। १३५ ।। बळी श्रावकना नाम मात्रयी मां साधारणपणं होतं नयी, केमके नाम मात्र कार्य साधी शक्तुं नथी; अने जो नाम मात्री कार्य सधातुं होय तो, मंगल आदिक नामच । प्रसिद्ध एवा जीम आदिकोने मंगल आदि कार्य साधवानी आपत्ति (मामि) थाय ॥ १३६ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर •
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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