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________________ १४॥ अष्टमढस्थानफणा रत्यरति प्रसनो हास्यन्नयनीमदंष्ट्री मोहमहाविषधरो रोऽः, एतेन दृष्टं जगदप्यज्ञानगरवाहतं न किंचिहिताऽहिते चिंतयति गुममांत्रिक एवापनयति तन्मोहविषं ॥ २५ ॥ ततस्तहिनाशे यतस्वेति, युप्मत्प्रसादात्तदपि नं यति विधिमुपदिशतेति कुमांगणात पुनर्मुनिम्बाच. सम्यक्त्वमंडले विविधशिकादानपूर्व यनिधर्ममंत्री देय इति ॥ २६ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर से गोहरूषी महान जयंकर सर्प आउ मदना म्यानारूप। फणावाला. रनि अारतिरूपी जयकर जिलावालो. हास्य तया त्यापी मयंक वाटावाला ये तो जगन अज्ञानरूपी ग्यी हणाई या कई पण हित अहित विचारी शकतुं नयी ने मोहरूपी सर्पना ग्ने गुरू। मंत्रबाहीज फन पर की शके डे ।। २५ ।। माटे ते मोहरूपी मर्पना अंग्नो नाश कम्घा मान प्रपन्न कर? न्यारे ते कुमार का के, आप साहबनी कृपायी ते पण नाश यामशे. माटे ते के दूर करवानी विधि आप सादव बतायो ? न्यारे फरीन मुनिए कयु के. मम्यकपम्पी मंझन्झमां वे प्रका|ग्नी. * शिकाना आदानपूर्वक साधुधर्मपी मंत्रना प्रयोग करवा. पनी विधि ॥ २६ * ग्रहण शिक्षा अने आसेवन शिशा.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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